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स्थानक वासी परम्परा के मूल सिद्धान्तों के साथ जरा भी मेल नहीं खाती। तथा टीकाग्रन्थों में भी अनेक ऐसी बाते हैं जो जैनाचार से विरोध रखती है । आज हमारा स्था. साधु समाज एवं श्रावक वर्ग इतना बड़ा है किन्तु उसके मूल भूत सिद्धान्त के प्रतिपादक एक भी टीका ग्रन्थ अपने में उपलब्ध नहीं हैं। हमें मूर्तिपूजकों की टीका का ही बार बार आश्रय लेना पडता है । परिणाम स्वरूप स्थानकवासी जैन परम्परा के प्रतिपादन में अनेक बाधा भी उपस्थित हो जाती है । यह हमारे लिए कम लज्जाजनक नहीं हैं । प्रायः अन्य समाज के विद्वान मुनि स्थानकवासियों को ज्ञान शून्य ही समझते हैं । हमें उनके सामने बार बार लज्जित होना पडता है। आगमों में जहां कहीं भी प्रतिमा या चैत्यशब्द आता है उसका मूर्ति सूचक ही अर्थ किया है. इतना बड़ा स्थानकवासी समाज जो सदा से मूर्तिपूजा का विरोधी रहा है उसका आधार अगर श्वेताम्बराचार्यों द्वारा निर्मित टीका ग्रन्थों पर ही आश्रित है तो वह अपने गौरव को सुरक्षित नहीं रखसकता ।
श्वेताम्बराचोर्यों ने विश्व साहित्य की स्मृद्धि में असाधारण योग प्रदान किया है । साहित्य के प्रत्येक क्षेत्र में जैनाचार्यों ने अपनी अनुपम प्रतिभा का परिचय दिया है । जब हम जैन साहित्य की विस्तीर्णता, समुद्धता और भव्यता की ओर दृष्टिपात करते हैं तो उसके निर्माता समर्थ आचार्यों की प्राण्ड विद्वता
और अथाक परिश्रम का ध्यान आता है और उनके प्रति श्रद्धा से हृदय भर जाता है । इन जैनाचार्यों द्वारा निर्मापित साहित्य विश्व साहित्य की बहुमूल्य निधि है। प्राकृत संस्कृतादिभाषा में लिखा गया इस कोटि का साहित्य जैनधर्म ने ही प्रस्तुत किया है । भगवान श्रीमहावीर ने प्रचलित लोक भाषा का आदर कर प्राकृत (अर्द्धमागधी) में उपदेश प्रदान किया । बाद में जैनचार्यों ने प्रांतीय भाषाओं को भी साहित्य का रूप प्रदान किया । लामिल और कन्नड साहित्य तो जैनाचार्यों के ग्रन्यों से ही समृद्ध हआ है। राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में कहा जाय तो “अपभ्रंश साहित्य की रचना और सुरक्षा में जैनों ने सबसे अधिक काम किया है । " जैनाचार्यों ने जैसे प्राकृत और अपभ्रंश में साहित्य की रचना की वैसे ही विद्वद्योग्य संस्कृत भाषा में भी उन्होंने प्रकाण्ड पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थों की रचना की है । निष्पक्ष दृष्टि से विचार किया जाय तो यह मेरी दृढ धारणा है कि उपलब्ध संस्कृत साहित्य में से जैन साहित्य को अलग कर दिया जाय तो संस्कृत साहित्य नितान्त फीका हो जाता है ।
इस दिशा में स्थानकवासियों की प्रगति नहीं वत् ही है । कम से कम मूल आगमों पर आधुनिक शैली में विद्वतापूर्ण एवं संशोधित पद्धति से टीकाओं की नितांत आवश्यकता है।"
ने ये विचार पूज्यश्री जवाहरवालजी महाराज के समक्ष रखे। पूज्यश्री जवाहरलालजी महाराज अपने शिष्य के ये विचार सुनकर कुछ विचार में पडगये । उस समय पं. श्री घासीलालजी महाराज पूज्य श्री की सेवा में ही उपस्थित थे । गुरुदेव को बिचारमम देखकर पं. मुनिश्री ने गुरुदेव से सनम्र निवेदन किया आप इतने विचार मम क्यों हैं ? इस पर पूज्यश्री ने फरमाया- यह जो कह रहा है वह सत्य है । हमें हर बात पर मूर्तिपूजकों के टीका ग्रन्थों पर हो ओश्रित रहना पड़ता है। यह हमारे लिए लज्जा जनक है, किन्तु क्या किया जा सकता है। इस पर पं. मुनिश्री घासीलालजी महाराज ने फरमायाअगर आपकी आज्ञा हो तो मैं यह काम कर सकता हूँ । स्थानकवासी जैन समाज की इस बहुत बड़ी कमी को दूर करने के लिए मैं अपना सारा जीवन इसी में समर्पण कर दूंगा । केवल मुझे आपके आशिर्वाद की ही आवश्यकता है।
पूज्यश्री ने कहा- अन्धा आंखे ही मांगता है । अगर तुम यह काम कर सकते हो तो फिर समाज को ओर चाहिए ही क्या ? यह काम अगर तुम कर सकते हो तो केवल मेरा या मेरे संप्रदाय का ही नाम उचल नहीं होगा बल्कि सम्पूर्ण जैनसमाज का मस्तक गौरव से उँचा होगा ।,, आगमों पर दीका
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