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वृक्ष के नीचे मुनियों को गुनगुनाते देख उनके मन में कुतुहल जागृत हुआ। सोचा ये लोग कौन हैं ? रात्रि में यहां क्यों ठहरे हैं ? यह सब जानने के लिए वे अपने साथियों के साथ महाराज श्री के पास आये और पूछा आपलोग कौन हैं ? और यहां क्यों ठहरे हो ?
इस पर महाराजश्री ने फरमाया हम लोग जैन साधु हैं । जैन साघु सूर्यास्त के बाद कहीं भी गमन नहीं करते। हम बुधगांव जारहे थे किन्तु यही सूर्य अस्त हो गया अतः हमें यहीं ठहरना पडा ।
राजा साहब को जैन मुनियों के आचार की यत्किञ्चित झांकी मिल गई । वे ईनके त्याग से चमत्कृत हो गये और अधिक वार्तालाप के लिए उन्होंने अनेक प्रश्न एक साथ पूछ डाले।
इस पर महाराज श्री ने कहा
राजन् ? यह हमारा समय ध्यान संध्या (प्रतिक्रमण) का है । शिष्टाचार के नोते ओपने जो कुछ भी प्रारंभ में पूछो उसका उत्तर संक्षिप्त में दे दिया । ईस समय हम अधिक वार्तालाप नहीं कर सकतें । यदि आपकी इच्छा हो तो कल बुधगांव में मिले । उस समय मैं आप की हर शंकाओं का समाधान करने का प्रयत्न करुंगा । यह सुनकर राजा ने महाराज श्री को वन्दन किया और कल बुधगांव पधारने का और अपने महल में ठहरने का आग्रह किया ।
भयावनी रात्रि थी । जंगली जानवरों की डरावनी आवाजें सुनाई दे रही थी। ऐसी स्थिति में राजा साहब ने महाराज श्री से कहा-स्वामीजी, रात्रि का समय है यहां जंगली जानवरों का बडा उपद्रव रहता है तथा चोरों का भी भय बना रहता है इसलिए आपकी रात्रि सुरक्षित निकलसके इसलिए मैं अपने अंगरक्षक को आपकी सेवा में रखना चाहता हूँ ।
महाराजश्री ने फरमाया राजन् ! आप हमारी चिन्ता न करे ! हमारे पास ऐसी कोई चीज नहीं जो चोरों को ललचासके और न हमको इस देह पर ममत्व बुद्धि ही है जिससे जंगली जानवरों का भय लगे । हम लोग दोनों भय से मुक्त हैं । आप हमारी किसी भी प्रकार की चिन्ता न करें । महाराज श्री के इस कथन से राजा बडा प्रभावित हुआ । उसने महाराज श्री को प्रणाम किया और बुधगांव की ओर चला गया । दूसरे दिन प्रातः होते ही महाराज श्री ने अपनी मुनिमण्डली के साथ विहार कर दिया और बुधगांव
। राजासाहब भी अपने अधिकारियों के साथ महाराज श्री के सामने आये । बडे सत्कार के साथ महाराज श्री को अपने महल में ठहराया । यहां करीब आठ दश दिन महाराज श्री बिराजे । प्रतिदिन प्रवचन होने लगे । बुधगाव के एवं आस पास के सैकड़ों की संख्या में महाराज श्री के प्रवचन का लाभ उठाने लगे । प्रतिदिन नियमित रूप से बुधगांव राजा, उनका रणवास एवं राज्य के समस्त कर्मचारिगण महाराज श्री के व्याख्यान में उपस्थित होते थे । महाराज श्री ने दस दिन तक धर्म के दशलक्षण का स्वरुप बड़ा सुन्दर समझाया । आपके प्रवचन का सार यह था-"धर्म प्रजा का मूल है । यदि मनुष्य धर्म की उपस्थित में इतना दुष्ट है तो धर्म की अनुपस्थित में उसकी क्या दशा होती ? सम्पूर्ण विश्व मेरा घर है, सम्पूर्ण मानवता मेरा बन्धु है, और भलाई करना ही मेरा परम धर्म है । धर्म स्वयं तिरता है और दुसरों को तारता है । आत्मा में रहे हुए सद्गुणों को प्रकट करनेवाला एक मात्र धर्म ही है। धर्म मनुष्य से देवता बनाने में सहाय भूत होता है । 'धर्म, अपार भवसमुद्र को पार करनेवाली नौका है । उस पर बैठ कर ही हम पार हो सकते हैं । उसे पकड रखने से नहीं । सूर्य के प्रकाश की तरह धर्म सब के लिए प्रकाशदायी है । सूर्य के प्रकाश पर किसी का स्वामित्व नहीं । किन्तु उपयोग हर कोई कर सकता है। यही बात धर्म के लिए भी सिद्ध है । धर्म जब तक कर्तव्य के साथ और कर्तव्य धर्म के साथ नहीं चलता, तब तक धर्म जीवन की कला नहीं बन सकता और धर्म शून्य कर्तव्या जीवन का आदर्श
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