________________
मुनिश्री लालचन्दजी महराज बडे सेहाभावी सन्त थे । इनके जीवन के क्षण क्षण में और मन के अणु अणु में ऋजुता और निष्कपटता थी। ज्ञान और कृति में आचार और विचार में द्वैत नहीं था । जो भी था सहज था स्पष्ट था । एक संस्कृत कवि ने सन्त का परिचय देते हुए कहा है
"मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्' त० श्री लालचन्दजी म० का जीवन सच्चे महात्मा का वन था । जहां न छल था । कपट था, न माया थी, और न किसी दुसरे के प्रति दुर्भाव ही था । वे तपस्वी थे पर उनमें न उग्रता थी और न अहंकार था। ऐसे सन्तों के गणों के उत्कीर्तन से स्वयं का जीवन भी विराट् बनता है । जीवन महान बने । और इन तपस्वी से प्रेरणा लेकर संयम साधना में अग्रसर
स्वो जी को श्रद्धाञ्जलि अपेन करने का भव्य तरीका है। स्वर्गस्थ आत्मा को शान्ति मिले यही श्रद्धाञ्जलि अर्पित
तपस्वीजी श्री सुन्दरलालजी महाराज ने इस चातुर्मास के बीच लम्बी तपश्चर्या की । तपस्या के अव सर पर आस पास के गांवों के जैन संघ बडी संख्या में आते थे और महाराज श्री का एवं तपस्वीजी का दर्शन कर अपने जीवन को पवित्र करते थे । तपस्या की पूर्णाहुति के समय समस्त गांव का कारोबार बन्द रहा । बडी संख्या में लोगों ने यथा शक्ति त्याग प्रत्याख्यान ग्रहण किये । तपस्या के अवसर कोल्हापुर के कई प्रतिष्ठित जैन अजैन श्वेज्ञाम्बर दिगम्बर भाई गुरुदेव के दर्शन के लिए चारोली आ रहे थे । उस समय किसो कार्यवश कोल्हापुर के महाराज भी पूना आये थे । कोल्हापुर के लोग पूना में महाराज से मिलने गये । महाराजा ने लोगों से पूछा आपलोगों का यहां कैसे आना हुआ ? उत्तर में श्रावकों ने कहा हमारे गुरु महाराज श्री घासीलालजी महाराज का चातुर्मास चारोली में हैं । उनके दर्शन के लिए हम जा रहे हैं । तब महाराज ने कहा मेरी भी इच्छा गुरुदेव के दर्शन करने की है । श्रावकों के साथ महाराजा भी हो गये । उस दिन वर्षा बडी जोरों की हो रही थी । सर्वत्र पानी और कीचड ही कीचड हो रहा था, मोटर जासके एसी स्थिति न थी । तब महाराजा ने घोडे पर बैठकर जाने का प्रयत्न किया किन्तु घोडा भी आगे नहीं बढ़ सका । तब महाराजा ने श्रावकों से कहा मैं तो नहीं आसकता किन्तु महाराज श्री को मेरा इतना सन्देश पहुँचा देना कि आपने एसे गांव में क्यों चोमासा किया ? जिससे हमलोगों को आप के दिव्य दर्शन से वंचित होना पडरहा है। श्रावकों ने कहा सन्त बिमार थे इसलिए महाराजश्री को यहीं चोमासा करना पडा। कोल्हापुर नरेश ने कहा चातुर्मास समाप्ति के बाद गुरु महाराज श्री पुनः कोल्हापुर पधारे और वहां की जनता को धर्म का मार्ग बतावें एसी मेरी ओर से आप प्रार्थना करें और मेरा नमस्कार उन तक पहुंचा दें। इस प्रकार अत्यन्त दु:ख के साथ महाराजा को पुनः पूना लौटना पड़ा
इस चातुर्मास के बीच अजैन लोगों ने महाराज श्री के उपदेश से सैकड़ों की संख्या में मद्य मांस जुगार परस्त्रीगमन आदि का त्याग किया । दया पोषध सामायिके उपवास आदि तपस्याए बड़ी मात्रा में हुई । चातुर्मास सानन्द संपन्न हुआ । चातुर्मास की समाप्ति पर लोगों ने बडी श्रद्धा और दःख के साथ महाराज श्री को विदाई दी । इस अवसर पर भी त्याग प्रत्याख्यान अच्छे हए ।
महाराज श्री ने अपनी सन्त मण्डली के साथ अहमदनगर की ओर विहार कर दिया । बुधगांव के महाराजासाहब को प्रतिबोध- महाराजश्री अहमदनगर की ओर पधार रहे थे । रास्ते में बुधगांव नामका गांव आता है । बुध गाँव से कुछ मील पर सूर्यास्त होने से महाराजश्री ने अपनी मुनि मण्डली के साथ एक वृक्ष के नीचे रात्रि निवास किया । प्रतिक्रमण के समय महाराज श्री अपने मुनियों के साथ प्रतिक्रमण कर रहे थे । उस समय बुधगांव के राजा शिकार करने के लिए अपने साथियों के साथ उसी जंगल में घूम रहे थे।
Jain Education International
www.jainelibrary.org
For Personal & Private Use Only