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________________ १८४ धर्मपेमी बन्धुओं, माताओं, एवं बहनो ! संसार की समस्त योनियों में मानव योनि सर्व श्रेष्ठ कहलाती है । ओर दुर्लभ भी, जैन आगम स्थानांग सूत्र में कहा है-"तओ ठोणाइ देवे पोहेज्जा-माणुसं भवं, आरिए खेत्ते जम्मं, सुकुल पच्चायाति । ठानांग ३।३। अर्थात मनुष्य जीवन, आर्यक्षेत्र में जन्म और श्रेष्ठ कुल की प्राप्ति । संसार में अन्नत काल से भटकती हुई आत्मा जब क्रमिक विकास का मार्ग अपनाती है तो वह अनन्त पुण्य कर्म का उदय होने पर निगोद से निकलकर वनस्पति, पृथ्वी, जल, आदि की योनियों में जन्म लेती है और जव यहां भी अनन्त शुभ कर्म का उदय होता है तो वह द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रीय पंचेन्द्रिय नारक तिर्यच आदि विभिन्न योनियों को पार करता हुआ क्रमशः उपर उपर उठता हुआ जीव अनन्त पुण्य के बलसे मनुष्य जन्म ही ग्रहण करता है। विश्व में मनुष्य ही सबसे थोडी संख्या में है अतः मनुष्य जन्म ही सब से दुर्लभ भी है महान भी है । महाभारत में ब्यास ऋषि भी कहते हैं-"गुह्यं ब्रह्म तदिदं ब्रवीमि न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किजित" आओ ! मैं तुम्हें एक रहस्य की बात कहता हूँ। यह अच्छी तरह मन में दृढ करलो कि संसार में मनुष्य से बढकर और कोई नहीं है । महाराष्ट्र के पुनित सन्त तुकाराम कहते हैं कि स्वर्गी चे अमर इच्छिताती देवा, मृत्यु लोकीं व्हावा जन्स आम्हा ॥ स्वर्ग के देवता इच्छा करते हैं हे प्रभु ! हमें मृत्युलोक में जन्म चाहिए अर्थात् हमें मनुष्य बनने की चाह है । एक उर्दू शायर भी कहता है फरिस्ते से बढकर है इन्सान बनना। मगर इसमें लगती है मेहनत जियादा ॥ मनुष्य के हाथ पैर पाने से कोई मनुष्य नहीं बन जाता । मनुष्य बनता है मनुष्य की आत्मा पाने से और वह आत्मा मीलती है धर्म के आचरण से । यों तो मनुष्य रावण भी था किन्तु हमें रावण नहीं राम बनना है । कंस नहीं कृष्ण बनना है। संगम नहीं महावीर बनना है । मानव जीवन का ध्येय है अजर अमर पद पाना महामानव बनना...... इत्यादि...... मानवदेह की महत्ता पर आपने एक घन्टे तक प्रवचन दिया । आपके प्रवचन का जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ा । मांगलिक श्रवण कर लोग अपने अपने स्थान पर चले गये । रात्रि के भाई महाराज श्री के पास आया और बोला-गुरूजी ! यहां जैन समाज में बडे बडे धनिक लोग हैं और दिल के भी उदार हैं । आप बडे भाग्य शाली और विद्वान हैं । आपके लिए हम चन्दा करना चाहते हैं । अकेला भूपाल अन्ना पांच सौ रुपये चन्दे में देगा। और भी प्रतिष्ठित सज्जन हैं वे भी चन्दा देंगे। आप भी अपने प्रवचन में उपदेश देंगे तो बहुत अच्छी रकम होगी। इस पर महराज श्री ने कहा-भाई हम जैन मनि है। जैन मुनि अपने पास पैसा रुपया या नोट नहीं रखते । वे अपरिग्रही होते हैं । आप जैसे लोगों के घर से शिक्षा मांगकर खाते हैं तब वह भाई बोला । अगर आप पैसा नहीं लेते तो इतना क्यों पढे हो ! महाराज श्री ने कहा-हमने पढाई तो आपलोगों को समझाने के लिए की है। हमारे लिए तो केवल एक नमुक्कारमन्त्र ही काफी है हमारा तो उददेश्य स्व पर कल्याण का होता है। यह सुनकर वह महाराज श्री के त्याग से खूब प्रभावित हुआ। वह लोगों के बीच महाराज श्री के त्याग की खूब प्रशंसा करने लगा। धीरे धीरे महाराज श्री के त्याग एवं विद्वता की चर्चा सारे नगर में फैल गई । प्रतिदिन आपके जाहिर प्रवचन होने लगे। लोक अधिक से अधिक संख्या में महाराज श्री के पास आने लगे । आप श्री के सत् प्रयत्न से कोल्हापुर को जनता में धर्म चेतना का संचार हुआ । जैसे हिमालय के ऊंचे शिखरों से पडता हुआ गंगा का प्रवाह शुष्क मैदान में पहुंचकर वहा की भुमि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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