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नहीं हो सकता, यदि हम वाहन का प्रयोग करने लग जायें तो हमारे उपदेश से साधारण जनता ग्रामनिवासी वंचित हो जाएगी। हम आप जैसे बड़े बड़े लोगों में और बडे बडे शहरों में उपदेश देने लग जावेंगे । साथ ही वाहन के प्रयोग से अनेक दोष उत्पन्न होते हैं । धातु मात्र भी अपने पास रखना पाप समझते हैं । सूई जैसी सामन्य चीज भो यदि रात्रि में भूल से हमारे पास रह जाय तो हमें उपवास करना होता है । फिर पैसे जैसी चीज का उपयोग ही कैसे कर के लिए टिकीट खरीदना होता है । जब हम पैसा नहीं रखते फिर टिकीट कैसे खरीद सकते हैं ? बिना टिकीट की यात्रा करना राज्य की चोरी है। कदाचित् आप जैसे समर्थ भक्त टिकीट का पैसा दे भी दे यह सुविधा कुछ समय के लिए ही हो सकती है बाद में पैसा पाने के लिए गृहस्थ की गुलाम लेनी पडेगी। दूसरा सजीव वाहन का प्रयोग करते हैं तो बैल घोडे आदि को कष्ट होता है उनको कष्ट देना आदर्श मुनि का धर्म नहीं है । निर्जीव वाहन के प्रयोग से मार्ग में चलने फिरने वाले अनेक प्राणियों की हिंसा होती है । अतः वाहनव्यवहार हिंसा का ही पोषक है ।
पैदल यात्रा स्वतंत्र यात्रा है । जब जो चाहे तब यात्रा कर सकते हैं । हर छोटी-बडी जगह जा सकते हैं । पहाडी रस्त पार कर सकत ह । किन्तु वाहन मनुष्य को गुलाम बनातो है। वाहन जहां जा सकता है मनुष्य भी वहीं जाता है। किन्तु पैदल चलनेवाला उपदेशक हर जगह जा सकता है।
महाराजा-जब आप अपने पास पैसा नहीं रख सकते हो तो सिर के बाल एवं दाडी मल के बाल कैसे निकालते हैं ।
महाराजश्री-हम लोग सिर दाडी एवं मूछ के बाल हाथ से ही खीच कर निकालते हैं। किसी नाई या उस्तरे आदि से सिर नहीं मुंडवाते। जब केशलुचन की बात सुनी तो महाराजा को बडा आश्चर्य हआ और उन्होंने कहा-आज के इस युग में आप जैसे तपस्वी क्रिया परायण सन्त विरले ही होते हैं। आप जैसे सन्त ही भगवान को प्राप्त कर सकते हैं । मेरा एक प्रश्न यह है कि आप रात्रि में ही क्यों नहीं जलाते ? इसमें क्या दोष है ?
महाराजश्री, राजन् ! दीप के लिए तैल चाहिये - और तेल के लिए पैसा चाहिए । सभी जगह दीप की व्यवस्था नहीं हो सकती।
महाराजा-हम आप जैसे सन्तों के लिए राज्य की तरफ से सारे राज्य में मुफ्त में ही टीप की व्यस्था कर देंगे।
महाराजश्री, आप अपने राज्य की सोमा तक ही व्यवस्था करेंगे किन्तु अन्य राज्य में तो मावापेक्षी ही बनना पडेगा । साथ ही हम लोग पृथ्वी, पानी, अग्नि, हवा में जीव मानते हैं । अतः अग्नि के जीवों की रक्षा के लिए दीप का प्रयोग नहीं करते । तथा दीप में अनेक जीव पड कर मर जाते हैं। अहिंसाधर्मी मुनि किसी भी जीव को मारना महान पाप समझते हैं, इस प्रकार करीब देढ घंटे तक कोल्हापर राजा ने महाराजश्री से विविध विषयक चर्चा की। और खूब संतोष व्यक्त किया । अन्त में कोल्हापुर नरेश ने महाराज श्री के शीघ्र स्वस्थ होने की शुभ कामना व्यक्त कर कहा-आप स्वस्थ होते मोटापर की ओर विहार करें । कोल्हापुर की जनता चातक की तरह आप के आगमन की प्रतीक्षा कर रही है। आप आने की स्वीकृति देकर हमें अनुग्रहीत करें । महाराजश्री ने मौन भाव से स्वीकृति फरमा दी ।
कोल्हापुर महाराजा के जाने के बाद अंग्रेज डाँक्टर वेल साहेब फुरसत के समय महाराज श्री के आते और धर्म सम्बन्धी विविध जानकारी प्राप्त करने लगे। जैन धर्म के अहिंसा सत्य अस्थेय व्रत
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