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चलते हैं, पैर में जूता, चप्पल, खड़ाउ, कपडे के जूते मोजा या अन्य किसी भी तरह के पादत्राण का प्रयोग नहीं करते।
महाराजा, आप पैदल चलकर अपना बहुत बडा बहुमूल्य समय नष्ट नहीं करते हैं ? यदि आप वाहन का उपयोग करें तो अधिक से अधिक धर्म का प्रचार कर सकते हैं । देश विदेश में जाकर अहिंसा धर्म की ज्योति फैला सकते हैं।
महाराजा श्री, जैन धर्म अहिंसा प्रधान धर्म है । इसकी प्रत्येक प्रवृत्ति के पीछे अहिंसा की भावना रही हुई है। इस धर्म में आत्मकल्याण पर अधिक भार दिया गया है । साथ ही धर्म-नेता का । आचार व विचार होगा उसका समाज पर भी उतना ही आदर्श होगा । अपने ही बताये हुए मार्ग पर हम ही न चले तो दूसरा हमारा अनुकरण क्या कर सकता है। जैन मुनि के प्रत्येक व्यवहार के पीछे प्राणी मात्र को कष्ट न देने का आदर्श छुपा हुआ रहता है। इसलिए श्रमण में पद यात्रा को अधिक महत्व दिया है। धर्मप्रचार की दृष्टि से तो पैदल भ्रमण अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हवा है । भगवान श्रीमहावीर, महात्मा बुद्ध एवं भारत के अनेक अपरिग्रही महापुरुषों ने भी पै करके ही जनता में धर्म जागृति उत्पन्न की और युग-युग से चली आई रुढियों के स्थान पर वास्तविक धर्म की स्थापना की थी । आज की तरह पूर्वकाल में यातायात के इतने तेज साधन नहीं थे और न इतने प्रचार के बाह्य साधन ही थे । फिर भी उन महान सन्तों ने पद-यात्रा के द्वारा ही इस विशाल विश्व में घूम-घूम कर धर्म का प्रचार व प्रसार किया । जन जीवन को धर्म से ओत प्रोत बनाया था। आज के इस वैज्ञानिक युग में भी पद यात्रा के द्वारा ही जैन श्रमण जन-जीवन को जागृत करने का प्रयत्न करता है, यह उनकी एक विशेषता है । साथ ही जीवन निर्माण में पदयात्रा का अति महत्वपूर्ण स्थान है। पद यात्रा शिक्षा का प्रधान अंग मानी गई है । महान पद यात्री ह्यएनसिंग ने भारत के विविध प्रान्तों में पद यात्रा कर बौद्ध धर्म और साहित्य का अध्ययन कर अपने देश तक महात्मा बुद्ध का सन्देश पहुँचा कर अपने आपको इतिहास के पृष्टों में अमर कर दिया । पद यात्रा के अनेक लाभ हैं। यह श्रमणों को परिषह सहन करने की प्रेरणा भी देता है। पैदल भ्रमण करनेवाले श्रमणों को अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। कहीं बडे बडे पहाडों को लांधना होता है तो कहीं प्रकृति की गोद में कल कल करती नदियों को पार करना होता है । कहीं हरे भरे खेत और कहीं बीहड हिंसक पशुओं से युक्त जंगल । कहीं सघन वृक्षावली और कहीं विशाल रुखा रेगिस्तान । इन सब को साध मर्यादा के अनुसार पार करना होता है । पद यात्रा में कहीं श्रद्धाभक्ति के भार से झुके हुए भद्र ग्रामीन स्वागत के लिए उद्यत मिलते हैं, तो कहीं हमारी वेषभूषा और परिचर्या से अपरिचित ग्रामीन हमे चोर लोग समझ कर पत्थर लाठियों का प्रहार करने के लिए सामने आते हैं। कहीं सिंह व्याघ्र आदि हिंसक प्राणियों का सामना करना पडता है तो कहीं क्रोडा करते हुए भोले मृग-शिशु दृष्टि गोचर होते हैं। यह सब देखने से प्रकृति का ज्ञान होता है । मानव स्वभाव का परिचय प्राप्त करने का एवं उनकी विभिन्न भाषाएं, संस्कृतियां समझने का अवसर मिलता है।
दूसरा चारित्र-रक्षा की दृष्टि से भी एक नियत स्थान पर न टिक कर पैदल भ्रमण करना साधु के लिए आवश्यक है । अधिक समय तक एक स्थान पर टिके रहने से मोह की जागृति एवं वृद्धि होने का भय रहता है । इस लिए एक विचारक ने ठीक ही कहा है
" बहता पानी निर्मला पडा गन्देला होय त्यों साधुतो रमता भला दाग न लागे कोय” । पैदल यात्रा से जितना अधिक धर्म प्रचार हो सकता है उतना प्रचार वाहन का प्रयोग करने से
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