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________________ लिए नहीं होती वह तो अहैतु की हुआ करती है । बिना किसी इच्छा के प्रभु की परम निर्मल भक्ति करना ही सच्ची भक्ति है । निष्काम भक्ति ही सर्व श्रेष्ठ भक्ति है मनोविज्ञान शास्त्र का यह नियम है कि जो मनुष्य जैसा सोचता है, मनन करता है, कालान्तर में वह वैसा ही बन जाता है । जिस को जैसी भावना होती है, वह वैसा ही रूप धारण कर लेता है "यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी जिसकी जैसी भावना होती है वैसी ही उसको सिद्धि मिलती हैं । इस नियम के अनुसार परमात्मा का चिन्तन मनन, भजन करने से यह आत्मा परमात्मा बन जाता है। कोल्हापुर नरेश-क्या आप मूर्ति को मानते है ? महाराज श्री राजन् ! हम मूर्ति को ईश्वर नहीं मानते । कारण मूर्ति जड है, जड कभी ईश्वर नहीं हो सकता और ईश्वर जड नहीं हो सकता । शरीर जैसी जड वस्तु से ममता आसक्ति दूर करने के लिए ऋषि मुनियोंने चार वेद, अठारह पुराण स्मृतियां आदि की रचना की है तो जड मूर्ति के प्रति जो हमारी ममता आक्ति उत्पन्न होगी उसे हम किस साधन से दूर कर सकते हैं ? महाराज-क्या आप वर्णव्यवस्था में विश्वास रखते हैं ? महाराज श्री-राजन् ? जैनधर्म आज की प्रचलित वर्ण व्यवस्था का सदा कट्टर विरोधि है । वह जन्मतः किसी को ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र नहीं मानता । जैन धर्म जाति की अपेक्षा कर्तव्य को विशेष महत्व देता है। उसका मुख्यसूत्र है कम्मुणा बंभणो होई कम्मुणा होई खत्तिओ बइसो कम्मुणा होई सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥ अर्थात् जन्म की अपेक्षा से सब के सब मनुष्य हैं । कोई भी व्यक्ति जन्म से ब्रह्माण, क्षत्रिय वैश्य एवं शूद्र होकर नहीं आता । वर्ण व्यवस्था तो मनुष्य के अपने स्वीकृत कर्तव्यों से होती है। अतः जो जैसा करता है, वह वैसा ही हो सकता है । अर्थात् कर्तव्य के बल से ब्राह्मण शूद्र हो सकता है और शूद्र भी ब्राह्मण हो सकता है । भगवान श्री महावीर स्वामी के शासन में चाण्डाल कुलोत्पन्न हरीकेशी नाम के एक महामुनि थे । उनके त्याग एवं तप से प्रभावित हो सार्वभौम राजा एवं क्रियाकाण्डी ब्राह्मण तथा देव गण भी सभक्तिभावसे उनके चरण छकर अपने को धन्य मानते थे । स्वयं भगवान श्रीमहावीर ने पावापुरी की महती सभा में उनकी प्रशंसा करते हुए कहा था सक्ख खु दीसई तवो विसेसो ॥ न दीसई जाइ विसेस कोई सोवागपुत्तं हरिएस साहु, ॥ जस्सेरिसा इड्ढि महाणुभागा । उत्त० १२, ३७ अर्थात् प्रत्यक्ष में जो कुछ भी महत्त्व दीखाई देता है, वह सर्व गुणों का ही है, जाति का नहीं । जो लोग जाति को महत्त्व देते हैं वे लोग भूल करते है क्योंकि जाति की महत्ता किसी भांति भी सिद्ध नहीं होती । चाण्डाल कुल में पैदा हआ हरिकेशीमुनी अपने गुणों के बल से आज किस पद पर परचा है। इसकी महत्ता के सामने बिचारे जन्मतः ब्राह्मण क्या महत्ता रखते हैं ? महानुभाव हरिकेसी मुनि में अब चाण्डालपन का क्या शेष है वह तो ब्राह्मणों का भी ब्राह्मण बना हुआ है। भगवान श्रीमहावीर ने जाति को नहीं कर्तव्य को प्रधानता दी है उनका कहना है कि धर्म किसी की पैतृक सम्पत्ति नहीं है जिस पर अन्यकिसी का अधिकार ही न हो । धर्म सबका है और धर्म के सब हैं। धर्म किसी को जात पात की ओर नहीं देखता । वह देखता है मनुष्य की एक मात्र आन्तरिक सद् भावना एवं भक्ति को जिसके बल पर वह जीवित है । जिस प्रकार सूर्य-प्रकाश और जल-वायु आदि प्राकृतिक "दार्थो पर प्राणिमात्र का अधिकार है। उसी प्रकार धर्म एवं भगवान की उपासना पर भी सर्व का समान अधिकार है । इस केलिए उन्हें कोई रोक नहीं सकता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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