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सृष्टा की आवश्यकता है यह कार्य ईश्वर करता है । महाराज श्री
ईश्वर में करुणा होने पर भी यदि वह जीवों के दुःखों को दूर नहीं कर सकता है और भोगाय. तन-देहादि का आधार अदृष्ट पर ही हो तो फिर ईश्वर को बीच में डालने की आवश्यकता हो क्या है ? क्यों न यही माना जाय कि जीव अपने कर्मो के अनुसार सुख दुःख पाता है । वह जैसा कर्म करता है उसके अनुसार स्वयं उसका फल प्राप्त कर लेता है। यदि कहा जाय कि अचेतन कर्म जीव को फल कैसे दे सकते हैं ? जीव स्वयं अपने अशुभ कर्मो का फल नहीं चाहता है इसलिए फल देने. वाला तो ईश्वर ही मानना चाहिए । इसका उत्तर यह है कि जीव अपनी राग द्वेष रुप परिणति से कर्म पुद्गलों को अपने साथ सम्बध कर लेता है । उन आत्म संबंध रूप कर्म पुद्गलों में ऐसी शक्ति प्रकट हो जाती है कि वे जीव को उसके शुभाशुभ कर्मो का फल दे सकते हैं। जैसे नेगेटिव और पोजेटिव तारों में स्वतंत्र रुप से विद्युत पैदा करने की शक्ति नहीं है परन्तु जब दोनों मिल जाते हैं तो उनसे विद्युत् पैदा हो जाती है । इसी तरह स्वतंत्र कर्म पुद्गलों में जीव को दुःख देने की शक्ति न होने पर भी जब वे आत्मा से सम्बद्ध हो जाते हैं । तब उनमें ऐसी शक्ति प्रगट हो जाती है । अत जीव के शुभाशुभ कर्म हो उसे सुख दुःख का भोग कराने में समर्थत होता है । इसके लिये ईश्वर को बीच में डालने की आवश्यकता नहीं है । यदि ईश्वर को इस प्रपञ्च में डाला जाता है तो इश्वरत्व में बाधा आती है ईश्वर का सच्चा स्वरुप नहीं रहने पाता है ।
ईश्वर कर्तृत्व के विषय में दूसरा प्रश्न यह भी पैदा होता है कि ईश्वर ने यह जगत किसमें से बनाया ? अर्थात् सृष्टि रचना के पहले क्या अवस्था थी ? यदि यह कहा जाय कि सर्व शून्य था । उस शून्य में से ईश्वर के द्वारा इस सृष्टि की रचना की गई । तो यह कथन सर्वथा अयुक्त लगता है क्योंकि शून्य से कोई वस्तु पैदा नहीं हो सकती है । यह सर्व सम्मत तत्त्व है कि सत् असत् कभी नहीं हो सकता है । और असत् कभी सत् नहीं हो सकसा है । कहा भी हैनासतो जायते भावो ना भावो जायते सतः ।
अर्थात् सर्वथा असत् पदार्थ कभी उन्पन्न नहीं होता और सत् का कभी सर्वथा अभाव नहीं होता । जैसे खर विषाण असत् है तो वह कभी उत्पन्न नहीं हो सकता है और जो आत्मा आदि सन् हैं उनका कभी सर्वथा अभाव नहीं हो सकता है, यदि यह विश्व ईश्वर के द्वारा निर्मित होने के पहले सर्वथा असत् रूप था तो ईसकी उत्पत्ति ही नहीं हो सकती है यदि यह पहले भी सत् रूप था तो इसको उत्पन्न करने वाला ईश्चर हैं, यह नहीं कहा जा सकता है । इस तरह यह सृष्टीवाद या ईश्वर कर्तृत्ववाद युक्ति संगत सिद्ध नहीं होता है । कोल्हापुर नरेश
___ यदि परमात्मा हमें सुख-दुःस्त्र नही देता तो उसकी भक्ति करने की क्या आवश्यकता है ? जो हमारे काम में नहीं आता उसकी भक्ति करने से हमें क्या लाभ ? महाराज श्री,
__ क्या भक्ति का अर्थ रिश्वरतखोरी है ? भक्ति का अर्थ काम कराना ही है ? परमात्मा को मजदूर बनाये विना भक्ति होही नहीं' सकती, ? यह भक्ति क्या है. यह तो एक प्रकार की तिजारत है। इस प्रकार की भक्ति, भक्ति नहीं, ईश्वर को फुसलाना है, घुस देना है और अपने सुख के लिए उसकी चापलूसी करने के बराबर है । सच्चे ईश्वर भक्त की भक्ति किसी भी लोक पर लोक की कामना के
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