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का निश्चय कर लिया । दूसरे दिन आपरेशन करवाने की इच्छा से आप अपने मुनियों के साथ मिरज अस्पताल में पधारे और वहाँ एक कमरे में ठहरे ।
सेठ फत्तेचन्दजी साहब कोल्हापुर महाराजा के बडे मर्जीदान व्यक्तियों में से एक थे । आप की समाज में प्रतिष्ठा व प्रभाव बडा अच्छा था । उन्होंने महराजश्रो के ज्ञान दर्शन एवं उनके उत्कट चारित्र विषयक चर्चा कोल्हापुर महाराजा से की । जैन मुनियों के आदर्श चारित्र एवं जीवन साधना के उच्चतम नियमों को सुनकर वे बडे आश्चर्य चकित हुए । उन्होंने सेठ साहब फत्तेचन्दजी से कहा-"आपके गुरुदेव कहां हैं ? मैं उनका दर्शन करना चाहता हूँ।
सेठ साहब ने कहा गुरुदेव इस समय अस्पताल में विराज रहे हैं । वे नासुर की बिमारी से पीडित है । डाक्टरों ने उनका ऑपरेशन करने का निश्चय किया है । ठीक अवसर पाकर महाराजा गुरुदेव के दर्शन के लिए अस्पताल आये । जब लोगों को पता लगा कि-कोल्हापुर नरेश जैनमुनियों के दर्शन के लिए आरहे हैं तो हजारों की संख्या में जनता अस्पताल को आर रवाना हुई । अस्पताल के बाहर करीब पांच-छ हजार का समूह एकत्र हुआ था । महाराजा गुरुदेव के समीप पहुंचे उनके प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व को देखकर बडे चमत्कृत हुए । वे महाराजश्री के समीप आकर बैठ गये। महाराजा के आगमन के समाचार सुनकर सिव्हील सर्जन एवं अन्य डाक्टर भी महाराज श्री की सेवा में उपस्थित हुए। राज्य के मुख्य मुख्य कर्मचारी भी उपस्थित थे । दृश्य बडा अपूर्व था । महाराज श्री का प्रभावशाली व्यक्तित्व महाराजा को आकर्षित कर रहा था । महाराज श्री के मुखपर मुखवस्त्रिका देखकर महाराजा के मन में कुतुहल उत्पन्न हुआ । महाराजा ने अकडकर प्रश्न किया
क्यों महाराज! आप अपने मुह पर यह पट्टी क्यों बांध कर रखते हो ? महाराज श्री ने फरमाया
राजन् ! यह वीतरागी जैनमुनियों का चिह्न है । जिस प्रकार पुलिस की पहचान उसके पट्टे से होती है उसी प्रकार स्थानकवासी जैन मुनियों की पहचान भी इसी चिह्न से होती है । जब राजमहल पर ध्वज फरकता रहता है तब यह जाना जाता है कि "महाराजा इस समय महल में मौजूद है। जिस प्रकार ध्यज से महाराजा की उपस्थिति का पता लगता है उसी प्रकार मुखवस्त्रिका रुप चिन्ह से जैन मुनियों की पहचान होती है ।
दूसरा कारण यह है कि जैनधर्म अहिंसा प्रधान धर्म है इसमें मन और वचन से भी किसी प्राणी को कष्ट देना महान पापमाना गया है । जैन धर्म की मान्यतानुसार पृथ्वी, पानो, अग्नि हवा ओर वनस्पति वे सब सजीव है । उनकी रक्षा करना प्रत्येक जैनी का कर्तव्य है । जैन मुनि सम्पूर्ण हिंसा के त्यागी होते हैं अतः मुख के गरमश्वास से हवा के जीवन मरजाय इसलिए उन्हें मुख पर वस्त्र बांधना अनिवार्य होता है। श्रीमहावीर का यह सिद्धान्त है किसव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउ न मरिज्जिउं । तम्हा पाणवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंति णं ॥१॥ ____संसार के सभी प्राणी जीना चाहते हैं मरना योई नहीं चाहते । अतः निर्ग्रन्थ श्रमणों को प्राणी वध का सर्वथा त्याग करना चाहिए। जिस हिंप्तक व्यापार को तुम अपने लिए पसन्द नही करते हो, उसे दसरा भी पसन्द नही करता । जिस दयामय व्यवहार को तुम पसन्द करते हो, उसे सभी पसन्द करते हैं। यही जिन शासन के कथनों का सार है जो कि एक तरह से सभी धर्मो का सार है । इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर हम मुख पर वस्त्र बान्धकर रखते हैं। साथ ही मुखस्त्रिका हमें वाणी संयम का भी पाठ सिखाती है । क्योंकि भावों को अभिव्यक्ति देने का सब से प्रभावशाली और व्यापक माध्यम हैं भाषा । भाषा
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