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व्याख्यान वाणी का प्रचुर मात्रा में डाभ उठाया । चातुर्मास के समय चारितनायकजी के दर्शनार्थ आने वाले व्यक्तियों का भी संघ ने तन मन धन से आतिथ्य सत्कार किया। इस प्रकार चातुर्मास काल आनन्द पूर्वक सम्पन्न होने लगा
महात्मा गान्धी से भेट -
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महात्मा गान्धीजी असहयोग आन्दोलन के सिलसिले में उन दिनों सातारा आये हुए थे। कार्तिक मास चल रहा था। महात्मा गाँधीजी ने जाहिर प्रवचन दिया जाहिर प्रवचन के बाद यहां के सुप्रसिद्ध धावक जीवनलालजी ने गांधीजी से कहा- "यहाँ हमारे पूज्य गुरुदेव पधारे हुवे हैं । इस पर गाँधीजी ने महाराज श्री के दर्शन करने की एवं उनसे वार्तालाप करने की इच्छा प्रकट की। तत्काल सेठ जीवनलालजी के साथ महात्माजी महाराज श्री के निवास स्थान पर पधारे । उस समय महाराज श्री टाट का सामान्य आसन बिछा कर जमीन पर ही बैठे हुवे थे और स्वाध्याय में तल्लीन थे गान्धीजी वन्दन कर सामने बैठ गये । महाराज श्री को यह पता भी नहीं था कि " जो सामने व्यक्ति बैठे हैं वे ही गान्धी जी है। बाहर जनसमुदाय करीब दस हजार खडा था लोगों के कोलाहल और जयध्वनि से चरितनायकजी का ध्यान टूटा। उन्होंने सहसा अपने सामनेबैठे हुए पुरुष को देखकर पूछा आपका नाम ? गान्धी ने स्मित हास्य के साथ कहा मुझे मोहनलाल गान्धी महाराज श्री ने पूछा आपही गान्धी जी हैं ? इस पर गान्धी जी ने स्मित हास्य के साथ कहा "जी" में ही हूँ । गान्धी जी ने महाराज श्री को टाट के आसन पर जमीन पर बैठे हुए देख आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा मुनि जी आपके आसन तो पाट पर ही होना चाहीए ? हम जैसे सामान्य व्यक्ति जमीन पर बैठते हैं तो उचित जान पड़ता है । आप सन्तों का आसन तो उंचा ही होना चाहिए ?
कहते है
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महाराज श्री ने कहा पठ्ठे पर तो हम व्याख्यान के समय में बैठते हैं जाने के बाद आसन की उचाई या निचाई का कोई महत्त्व नहीं । महत्त्व तो मुनि
दूसरी बात जवमुनि हो धर्म के पालन को है । महात्मा गान्धी' मैं जैनमुनि एवं जैन धर्म के सिद्धान्त से परिचित हूँ। मैं प्रायः जहां अवसर मीलता है तब जैनमुनियों के समीप जाता रहता हूँ । तो मेरी आप मुनियों के प्रति विशेष श्रद्धा है । किन्तु आप जमाने के अनुकूल भावकों को उपदेश नहीं देतें । इन त्रुटियों को आप को निकाल देनी चाहिए । साथ हो आपको राष्ट्रीय असयोग आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिए । समस्त भारत पराधीनता कि बेड़ी में जकड़ा हुआ है । इस समय हम सव का एक मात्र उदेश्य होना चाहिए भारत के अग्रेजों की गुलामी से मुक्त करना । आप भी उपदेश मुनने वाले श्रावकों में इस भावना को
जागृत करें। अंग्रेज हमारे शत्रू हैं। उन्हें हटाना देश वासियों का कर्तव्य है ।
महाराज श्री ने कहा आपका और हमारा उदेश्य एक ही है । अन्तर इतना ही है कि आप देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त करना चाहते हैं जब कि हम आत्मा को उसके भीतर रहे हुए काम क्रोधादि शत्रुओं से मुक्त कराना चाहते हैं । बाह्य शत्रु हमारा उतना नुकसान नहीं करता जितना आन्तरिक है | बाह्य शत्रु अधिक से अधिक हमारा प्राण नष्ट कर सकता है। हमारा सर्वस्व छीन शत्रु करता सकता है । किन्तु आन्तरिक शत्रु तो हमारे समस्त आत्मगुणों को छीन लेता है और अनन्त भवों की गुलामी में देता है । जिसके जीवन में मिथ्याचार पापाचार और दुराचार की कारी कजरोरी मेघ घटाएँ छाई रहती है वह व्यक्ति स्वतंत्र होते हुए भी परतंत्र है । उसका जीवन सुखी नहीं बन सकता । जिसे आत्मबोध नहीं होता आत्म विवेक नहीं होता, वह व्यक्ति दूसरे है स्वयं अपना भी विकास नहीं कर सकता । अन्धे के सामने कितना भी
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का विकास तो क्या कर सकता सुन्दर दर्पण रखा जाय तो क्या
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