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________________ वीर ! त्वदीयदयया मिलितः सुपूज्यः, कालेन संहृत इतो न जनोऽस्त्यनीशः तस्यागुकंपनतयाऽऽप्त सुपूज्यवाँ मुच्यन्त एव मनुजाः सहसा मुनीन्द्र ! ॥३५॥ हे वीर प्रभो आप की कृपा से प्राप्त हुए पूज्य श्री जो को तो काल उठाकर स्वर्ग में ले गया । किन्तु इससे यह जननायक हीन नहीं हो सका कारण कि उक्त पूज्य श्री एक ऐसे पूज्य प्रतिनिधि को स्वस्थानापन्न कर गये हैं जिन के कृपा कटाक्ष से ही असंख्य प्राणी बन्धन मुक्त हो रहे हैं । ___सम्प्रत्यसाम्प्रतमितो ह्यभवत्सुपूज्य । प्रस्थानमत्रभवतो विबुधा वदन्ति । स्वास्वाऽग्रग्रहगृहीतसुविग्रहे के यद्विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावाः ॥६६॥ वर्तमान समय में इस लोक से स्वर्ग को सिधारना यह आपने उचित नहीं किया ऐसा ही सभी विचार शील मनुष्य कहते हैं क्योंकि अपने अपने आग्रह (हठ) रुप ग्रह से मचे हुए लडाई झगडों को कोन मिटा सकेगा ? कारण कि आपके समान महानुभाव ही उसका शमन कर सकेते हैं । वर्षतुवा रदनिभेऽम्ब्वमृतं वचस्तद् वर्षत्यरं त्वयि मयूरनिभा जनौधाः । हर्षप्रकर्षमविदन् मुदमाप धर्मो धर्मोपदेशसमये सविधानु भावात् ॥ वर्षाऋतु का मेघ जिस प्रकार जल वरसाता है ठीक उसी तरह जब आप वचनामृत की झडो लगा देते थे तब जनता मयूरों के समान अनिर्वचनीय आनन्द को प्राप्त होती थी और अपनी समीपता देखकर धर्म भी फूला नहीं समाता था । यस्त्वाँ जहार कुटिल: समय. स नून । मस्मोकमोविरभवत्परमार्थ शत्रुः ॥ यामों कृति सकललोककृते सपूज्य । व्याजत्रिधा धृततनुवमभ्युपेतः ॥१६॥ जो कुटिल कालने आपको हर लिया (चुरालिया) सो वह अवश्य ही हमारा परमार्थ शत्रु है कारण कि छल से भूत भविष्य और वर्तमान इन तीनों रूपों से उस काल ने सब के लिए यमराज का कार्य स्वीकार किया है। इस प्रकार हमारे चरितनायकजी ने पूज्य श्री को याद में १७४ लोक रचकर पूज्य आचार्यश्री जवाहरलालजी महाराज की सेवा में भेजकर अपनी हार्दिक श्रद्धाञ्जली भेजी (ये १७४ श्लोक पूज्य श्री श्रीलालजो महाराज के जीवन चरित्र में छपे हुए हैं । पाठक वहां देख लेवें) __ उच्चकोटि के वक्ता गुरुदेव के निरन्तर सामीप्य से आपने अपनी वक्तृत्व कला को खूब विकसित किया । आप की वाणी में अद्भूत शक्ति थी । जो कोई भी आपके सम्पर्क में आता वह लोहचुम्बक की तरह आपकी ओर आकर्षित हो जाता । आप के सदुपदेशों की चर्चा सुनकर आस पास के अनेक ग्राम निवासी आपकी सेवा में उपस्थित हुए और आगामी चातुर्मास अपने यहां करने का आग्रह करने लगे उन ग्राम निवासियों में चिंचवड का संघ भी प्रमुख था । उस समय सब लोगों में यह स्पर्धा-की भावना थी कि महाराज साहब हमारे क्षेत्र में पहले चतुर्मास करे । परन्तु उन सबमें चिंचवड, श्रीसंघ ने पंडित मनि श्री घासीलालजी महागज का चामुर्मास अपने यहां कराने में सबसे पहले सफलता प्राप्त की। वि. सं. १९७६ का चातुर्मास व्यतीत करने के लिए आपने चिंचवड की ओर विहार किया, आषाढ सुद एकादशी के दिन आपने चामुर्मासार्थ चिंचवड में प्रवेश किया । यहां पहुचकर आप अपनी मुनिमण्डली के सोथ स्थानक में विराजे । चातुर्मास काल में श्रावक श्राविकाओं का उत्साह दर्शनीय था । प्रतिदिन आपके प्रभावशाली प्रवचन होने लगे । व्याख्यान में आपने सुख विपाक सूत्र का वाचन किया आप ने अच्छो वक्त्वृत्व शक्ति का विकाश कर लिया था । आपकी वाणी का माधुर्य तथा शास्त्रों का तलस्पर्शी ज्ञान इतना अच्छा था कि व्याख्यान के समय श्रोतृवृन्द बरबस आपकी ओर आकर्षित हो जाता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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