SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६३ की अपेक्षा से संप्रदाय में हमारा महतोय आदरणीय स्थान है । भविष्य में आचार्य युवाचार्य बनने के भी प्रसंग आ सकते हैं। और ये प्रसंग ही हमारे लिए अनेकता के प्रसंग खडे कर सकते हैं । ८८ अतः हमारे इस पवित्र स्नेह को चिरस्थायी रखने के लिए हम दोनों यह प्रतिज्ञा करें कि हम कभी भी संप्रदाय का आचार्य आदि उच्चपद ग्रहण नहीं करेंगे ।" पं. श्री गणेशलालजी म० के उदात्त भाव पूर्ण इस प्रस्ताव को अत्यन्त हर्षावेग से पं. मुनि श्री घासीलालजी महाराज ने स्वीकार कर लिया । दोनो ने एक प्रतिज्ञा पत्र तैयार किया । उस प्रतिज्ञा पत्र पर दोनों मुनियोंने हस्ताक्षर किये । उस प्रतिज्ञा पत्र में संप्रदाय की कोई भी पदवी न लेने की प्रतिज्ञा थी । कालान्तर में विधि की विडम्बना कहो या मजबूरी कहो प्रतिज्ञा के प्रस्तावक पं. श्री गणेशलालजी म. अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ नहीं रह सके । उनकी प्रतिज्ञा के प्रति बेवफाई ने ही इन दोनों मुनियों को सदा के लिए अलग अलग कर दिया । दक्षिण प्रान्त के विविध क्षेत्रों को रतलाम की ओर पावन करते हुए पं. मुनि श्री जवाहरलालजी महाराज अपनी विहार किया । इधर आचार्य श्री श्रीलालजी महाराज ने भी मुनि मण्डली के साथ उदयपुर का चातुर्मास समाप्त कर रतलाम की ओर विहार किया । आप फाल्गुन शुक्ला पंचमी के ही रतलाम पधारे गये। इधर अत्यन्त शीघ्रता से बिहार करते हुए पं. मुनि श्री जवाहरलालजी महराज तपस्वी मुनि श्री मोतीलालजी महाराज आदि मुनिराज फाल्गुन शुक्ला दसमी के दिन रतलाम पधार गये । आगत मुनियों का भव्य स्वागत किया। पं. मुनि श्री जवाहरलालजी कर आनन्द अनुभव किया । रतलाम के हजारों स्त्री पुरुषों ने महराज ने आचार्य श्री के दर्शन चैत्र शुक्ल नवमी बुधवार से. १९७५ ता. २६ मार्च १९१९ के दिन पं. मुनि श्री जवाहरलालजी महाराज को सर्व प्रम्मति से आचार्य श्री श्रीलालजी महाराज ने युवाचार्य नियुक्त कर प्रसन्नता का अनुभव किया । इस उत्सव के अवसर समाज के हजारों प्रतिष्ठित व्यक्ति उपस्थित हुए थे । चरितनायक श्री घासीलालजी महाराज को जब अपने गुरुदेव के युवाचार्य बनने के समाचार मिले तो वे अपार हर्ष का अनुभव करने लगे । उन्होंने उसी समय अभिनन्दन पत्र गुरुदेव की सेवा में भेजा । उसी दिन अपने प्रवचन में गुरुदेव की आपने बडी प्रशंसा की और हर्ष व्यक्त किया । Jain Education International पूज्य श्री श्रीलालजी महाराज का स्वर्गवास अजमेर क्षेत्र से विहार कर आचार्य श्री श्रीलालजी महाराज का जेतारण पधारना हुआ । आषाढकृष्णा अमावस्या के दिन व्याख्यान देते समय अकस्मात् आपके नेत्रों की ज्योति बन्द हो गई । सिर में चक्कर आने लगे । आचार्य श्री को स्वस्थ करने के अनेक उपाय किये पर सब असफल हुए । अवस्था सुधरने के बजाय उत्तरोत्तर बिगडती ही गई । अन्तिम समय सन्निकट आ पहुँचा है यह जानकर आचार्य श्री ने संथारा करने की इच्छा व्यक्त की। आचार्य श्री की इच्छा के अनुसार समीपस्थ मुनियों ने आपको संधारा करा दिया। अपने अन्तिम समय को समस्त विधि पूर्णकर चतुर्विध संघ से क्षमा याचना की । क्षमा याचना के पश्चात् आपने समस्त मनो योग को प्रभु चिन्तन में लगा दिया। आपने अपने सत्प्रतिमय कर लिया था। विकराल काल आपकी इस सुकीर्ति को सहन पादशुक्ला तृतीया के दिन रात्रि के समय ब्राह्ममुहूर्त में छीनकर ले गया। उनके चले जाने से स्थानकवासी समाज अपने इस पांच भौतिक पार्थिव देह को छोड़ दिबंगत हो ओर फैल गया । जिस किसी से यह खेद कारक समाचार सुना, जीवन से सब के हृदय में अक्षुण्ण स्थान प्राप्त नहीं कर सका और देखते देखते अन्त में आचार्य श्री लालजी महाराज को हम सबसे का चमकता सितारा अस्त हो गया। आप गथे । यह दुःसंवाद वायुवेग से चारों For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy