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________________ १६२ आज्ञामुझे शिरोधार्य है मगर मुझे यह देख ना है कि मुझ में वह शक्ति है भी या नहीं ? अपनी शक्ति देख करही इस गुरुत्तर भार को उठाना चाहिए क्यों कि इसका सबन्ध सिर्फ मेरे साथ हि नहीं वरन् समस्त श्री संघ के साथ है । मुनि श्री घासीलालजी और मुनि श्रीगणेशलालजी म. का अध्ययन चल रहा है । उसे बिच ही में स्थगित कर देना भी उचित नहीं जान पड़ता । इनका अध्ययन पूरा होने पर मेरा विचार स्वयं पूज्य श्री की सेवा में उपस्थित होने का है । प्रत्यक्ष मिलने पर विशेष विचार करलेंगे । यह उत्तर लेकर दोनों सज्जन चले गये । मुनिश्रीजी हिवड़ा चातुर्मास पूर्णकर के मीरी पधारे । तीन तीन तारों का उत्तर न मिलने पर उदयपुर से श्री गेरीलालजी सा. खिबसरा आदि सज्जनों का डेप्युटेशन मुनिश्री जवाहरलालजी महाराज की सेवामें उपस्थित हुआ । उन्होंने बड़े आग्रह के साथ प्रार्थना की-"आप शोघ्र ही उधर पधार कर पूज्यश्री के दर्शन कर और युवाचार्य पद को स्वीकार करके हम सब को आनन्दित किजिए । " किन्तु मुनिश्री जी अपने दोनों शिष्यों के अध्ययन को इतनो आवश्यक समझते थे कि उसे अधूरा छोड़ कर शीघ्र विहार कर देना उन्हें उचित प्रतीत नहीं हुआ । अतएव उदयपुर का शिष्ट मण्डल भी वापस लौट गया । __अन्त में पं. श्री जवाहरलाल जी म. स. को आचार्य श्री०की आज्ञा शिरोधार्य करनी पड़ी। पूज्य श्री के आदेश को ध्यान में रख कर अध्ययन करने वाले दोनो मुनि पं श्री घासीलालजी महाराज एवं श्री गणेशीलालजी महाराज को तथा अन्य कुछ संन्तों को महाराष्ट्र में ही छोड कर पं. श्री जवाहरलालजी महाराज ने मालवा प्रान्त की ओर विहार कर दिया ।। ___ पं. श्री जवाहरलालजी महाराज के मालवा की ओर विहार हो जाने पर हमारे चरितनायकजी पर एक विशिष्ट जिम्मेदारी आपड़ी। केवल एक नहीं किन्तु दो । एक अध्ययन और दूसरा व्याख्यान । जब तक पूज्य गुरुदेव के साथ थे तब एक केवल एक ही लक्ष्य था अध्ययन एवं गुरुसेवा । अब दूसरी जीम्मेदारी आपडी । अध्ययन के साथ साथ आप प्रवचन भी देने लगे। पं. श्री घासीलाल जी म. तथा पं. श्री गणेशीलालजी म.को परस्पर निर्मल गुरुभ्रातृस्नेह अत्यन्त ही प्रगाढ था, पं० श्री गणेशलाल जी म० को अध्ययन श्रमके कारण यदा कदा सिर दर्द हो जाया करता था । वैसी स्थिति में सिर दर्द से जब पं० श्री घासीलालजी म. उनको सिर को संवारते हुए उपचार करते हुए अधित पाठ समझाया करते थे । इनके परस्पर के इस सस्नेह से साथी मुनियों को भी इर्षा हो जाया करती थी । इनका सस्नेह भाव दूध पानी सा था। पं० श्री गणेशीलालजी म. ने पं०श्री घासीलालजी महाराज का अपने प्रति इस सस्नेह भाव को देख कर एक दिन कहा-"मान्यवर ? जिस घर में एकता होती है वह घर स्वर्ग की उपमा से उपमित होता है । जिस घर में फूट होती है वह घर नरक कहलाता है । लक्ष्मी भी वही दौड़ दौड़ कर जाती है , जहां एकता है, प्रेम है । जिसके हाथ में एकता का अकाट्य शस्त्र होता है, वह हर एक को जितसकता है । एकता मानवता है । फूट दानवता है एकता से समता का प्रादुर्भाव होता है, पारस्परिक प्रेम तथा सदभावना में वृद्धि होती है । एकता में जो बल है वह अलगता में नहीं। कच्चे धागे परस्पर मिलजुल कर मदोन्मत्त मतंग को भी मृग के भांति अपने बन्धन में बान्धकर परतंत्रता को कारा में जकड़ सकते हैं, पर अकेले नहीं । एक एक बून्द मिलकर सागर का रूप धारण कर सकती है । रजः कण का समुह प्रचण्ड आतपवाले सहस्रमणि को भी निस्तेज बना सकता है । हमारे बीच की इस आदर्श एकता का सब से बड़ा शत्रु है अधिकार लिप्सा यह अधिकार ही हमें भविष्श में एक दूसरे से अलग कर सकती है। जीवआत्माओं के लिए संयमी साधना में भी यह बड़ा बाधक तत्त्व है । हम दोनों ही इस समय गुरुदेव के कृपा पात्र शिष्य हैं । और अध्ययन, प्रतिभा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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