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________________ १६१ वि. सं. १९७६ का अठारवां चातुर्मास चिंचवडमें हमारे चरितनायक जी की दीक्षा हुई तव से आप अपने गुरुदेव के साथ ही बिहार कर रहे थे। एक दिन के लिए भी आपने उनका साथ नहीं छोडो । संयमी जीवन के सत्रह वर्ष आप ने गुरुचरणों में अत्यन्त निष्ठा पूर्वक व्यतीत किये । उन दिनों आचार्य श्री श्रीलालजी महाराज उदयपुर में बिराजमान थे । इन्फलुजा के कारण वे सहसा बिमार पड गये । अपनी अस्वस्थता के कारण उन्हें विशाल संप्रदाय के उत्तराधिकारी की चिन्ता हुई । जव उन्होंने सम्प्रदाय के चरित्रशील विद्वान साधुओं पर दृष्टि डाली तो उन्हें परमतेजस्वी साधुरन्न पं. जवाहरलालजी महाराज एक सुयोग्य नायक दृष्टिगोचर हए । उसी समय उन्होंने सम्प्रदाय के मुख्य श्रावको एवं साधुओं से परामर्श किया । और सर्वसम्मति से पं. जवाहरलालजी महाराज को सम्प्रदाय का युवाचार्य बनाने का निश्चय किया । इस निश्चय को सम्प्रदाय के जिस साधु या श्रावक ने सुना उसका हार्दिक अभिनन्दन किया। उस समय पं. जवाहरलालजो महाराज अपनी शिष्य मण्डलो के साथ दक्षिण प्रान्त के हिवडा नामक गांव में बिराजमान थे । उस अवसर पर उदयपुर संघ का तार आया पूज्य श्री ने मुनि श्री जवाहरलालजी महाराज को युवाचार्य पद पर नियुक्त किया है । स्वीकृति लेकर खुश खबरी का तार दीजिए । तार लेकर हिवडा के मुख्य श्रावक मुनिश्री की सेवा में पहुचे । युवाचार्य पद पर नियत किये जाने का तार सुनकर मुनि श्री जवाहरलालजी महाराज विचार में पड गये । इतनी बडी सम्प्रदाय का भार उठाने के पूर्व वे अपने सामर्थ्य का विचार करने लगे उन्होंने मन में सोचा में लम्बे अर्से से दक्षिण में हूं । सम्प्रदाय के विशिष्ट क्षेत्रों से बहुत दूर हूं। मुझ से अधिक अमुभव योग्यता शास्त्रीय ज्ञान तथा उम्रवाले साधु इस सम्प्रदाय में विद्यमान हैं । जिस भार को वहन करने में उन्हें असमर्थ माना गया क्या मैं उसे वहन कर सकूँगा ?" इन सब बातों का विचार करने के बाद महाराष्ट्र में विचरने वाले अपने साथी मुनियों से एवं साध्वी समुदाय से एवं श्रावक गण से परामर्श किया सभी ने मुनि श्रीजवाहर लालजी महाराज को अपना भावी आचार्य स्वीकार करने में हार्दिक प्रसन्नता प्रगट की । साथी मुनिवरों की पूर्ण स्वीकृति मिलने पर भी पं. श्रीजवाहरलालजी महाराज ने तार का जवान शीघ्र देना उचित नहीं माना। उत्तर में विलम्ब हाते देखकर उदयपुर संघ ने पुनः दो तार दिये । किन्तु मुनि श्री ने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया । जब तारों से काम नहीं चला तो सतारा निवासी सेठ बालमुकुन्दजी तथा चन्दनमलजी मूथा हिवडा आये और मुनि श्री से युवाचार्यपद अंग कार करने की प्रार्थना करने लगे । उन्होंने कहा-"पूज्य श्री बडे विचारक एवं दरदर्शी हैं । उन्होंने गहरा सोच विचार करके ही आपके उपर भार डाला है । इस विकट परिस्थिति में प्रतिभाशाली योग्य व्यक्ति के विना इस गुरुतर भार को कोइ नही उठा सकता, पूज्य श्री ने आपको समर्थ समझा है । अस्वस्थता के समय उन्हें शीघ्र हो चिन्तामुक्त कीजिए और स्वीकृति प्रदान करके पूज्यश्री तथा समस्त सम्प्रदाय को आनन्दित कोजिए । सेठजी की बाते युक्ति संगत थी किन्तु मुनिश्री सहसा किसी निर्णय पर नहीं पहुँचना चाहते थे। अतएव उन्होंने उत्तर दिया मैं बहुत दिनों से महाराष्ट्र में हूं । उस तरफ की परिस्थितियों से अपरिचित हूँ । परिस्थितियों से परचित हुए बिना पूर्ण प्वीकृत दे देना मेरे लिए उचित नहीं है । हां पूज्य श्री की २१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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