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________________ सन्त समागम पंडितवर्य श्रीजवाहरलालजी महाराज के समय में स्थानकवासी समाज की शोभा बढानेवाले जो चारित्र शील, क्रियावादी, विद्वान सन्त थे, उनसे जब कभी आपकी भेट होती तब आपको बहुत प्रसन्नता होती । ये अपने समय का अधिकतर भाग उन्हीं के साथ व्यतीत करते । गुणों का आदर करते । गुणी सन्तों को देखकर इन्हें बहुत आनन्द होता था। "सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदम्” को आप ने अपने जीवन में सम्पूर्ण रूप से उतार लिया था । सदैव दूसरों के गुणों का ही दर्शन करते थे । दोषों की ओर प्रायः उनकी दृष्टि नहीं जाती थी । गुणों का ग्रहण करते समय इन्हे कभी सन्तोष नहीं होता । एक कवि ने ठीक ही कहा है येषां गुणेष्वसंतोषो, येषां रागः श्रुतं प्रति । सत्यव्यसनिनो ये च, ते नराः पशवोऽपरे ।। गुण ग्रहण करने के विषय में असंतोष रखते हैं ! शास्त्रों का श्रवण या अध्ययन करने में रुचि रखते हैं और सत्यमय जीवन व्यतीत करना ही जिनका व्यसन है, वे ही इस संसार में मनुष्य है अन्य और सब पशु हैं । इन तीनों बातों के आप मूर्तिमान स्वरूप थे। "दक्षिण की ओर विहार दक्षिण प्रान्त की ओर विहार करते हुए आप जब गुरुदेव के साथ भुसावल पधारे उस समय धर्मदासजी महाराज कि संप्रदाय के प्रभावशाली सन्त पंडित मुनिश्री चम्पालालजी महाराज सा. से आप की मेट हुई । परस्पर मिलकर बडे प्रसन्न हुए । आप में गम्भीरता, सरलता, शान्तता गुण ग्राहकता, आदि गुण प्रचुर मात्रा में होने के कारण आप श्री उनके शीघ्र ही प्रेमपात्र बन गये । इस प्रकार सन्त जनों से ज्ञान गोष्ठी कर गुरुदेव के साथ आप ने अहमदनगर की ओर विहार कर दिया । वि. सं. १९६८ का दसवां चातुर्मास अहमदनगरमें पण्डितवर्य श्री जवाहरलालजी महाराज एवं हमारे चरितनायक पंडित श्री घासीलालजी महाराज आदि सन्त दक्षिण देश में पधारे, उस समय से ही अहमदनगर का श्री संघ आपश्री का चातुर्मास कराने के लिए लालायित था । संघ ने प्रयत्न किया और उनकी भावना फलवती हुई । चातुर्मासार्थ पूज्य गुरुवर्य के साथ आप अहमदनगर पधारे । चातुर्मास आरंभ होने के कुछ दिनों के बाद अहमदनगर में प्लेग फैल गया । अतएव सन्तों को नगर के बाहर एक श्रेष्ठी के बंगले में चातुर्मास पूर्ण करना पड़ा । यहां से आहार पानी के लिए आपको कभी-कभी डेढ कोस की दूरी तक भी जाना पड़ता था । इस चातुर्मास में तपस्वी मुनि श्री मोतीलालजी महाराज ने तथा तपस्वी मुनि श्री राधालालजी महाराज ने ४९-४९ दिन का कठोर तप किया । पूर के अवसर पर असीम उपकार हुआ। अहमदनगर का चातुर्मास समाप्त कर आपने गुरुदेव के साथ अन्यत्र विहार कर दिया । दक्षिण प्रान्त में विचरते समय आपने मराठी भाषा का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया । दक्षिण प्रान्त के प्रसिद्ध सन्त ज्ञानेश्वर, तुकाराम, नामदेव आदि सन्त साहित्य का भी अध्ययन किया । मराठी सन्तों के अनेक उपदेश प्रद अभंग गाथा एवं पद्यों को कण्ठस्थ कर लिये । वि. सं. १९६९ का ग्यारहवाँ चातुर्मास जुन्नेरमें ___ जुन्नेर महाराष्ट्र का ऐतिहासिक स्थल है । और छत्रपति महाराजा शिवाजी की जन्मभूमि है। यहां जैन समाज के ५०-६, घर हैं । इस वर्ष का चातुर्मास आपने गुरुदेव के साथ जुन्नेर में ही व्यतीत किया। चातुर्मास काल में मुनि श्री मोतीलालजी सहाराज ने ३३ दिन की उघ्र तपस्या की । तपस्या के पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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