SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस चातुर्मास काल में हमारे चरितनायक निरन्तर अध्ययन करते रहते थे । अपने आवश्यकीय नैमित्तिक कर्मों को छोडकर आप दिन रात में क्षणमात्र का दुरुउपयोग नहीं करते थे । आलस्य या प्रमाद को कभी अपने पास फटकने नही देते थे । सतत जागृतावस्था में रहते थे । प्रमाद तो ये अपना परम शत्रु समझते थे । इस प्रकार अप्रमत्त वृति के कारण आपने स्वल्प काल में ही कवित्व शक्ति को भी प्राप्त कर लिया । किसी भी विद्या को हासिल करने में एकाग्रता की आवश्यकता होती है । एकाग्रता आप के साथ जुडी हुई थी वह आपमें ओत प्रोत हो गई थी। एकाग्रता पूर्वक अप्रमादी वृत्ति से निरन्तर स्वाध्याय करने के कारण आप शास्त्रों के पारागामी हो गये। छोटीसी अवस्था में इस प्रकार आगमों के वेता होना कोई साधारण बात नही है । इस चातुर्मास काल में आपने सिद्धान्त कौमुदी को साधनिका के साथ सम्पूर्ण याद कर लिया । यह सब निरन्तर साधना और परिश्रम का परिणाम था । परिश्रम के बिना कोई भी कठिन कार्य सिद्ध नहीं हो सकता किसी ने उचित ही कहा है आलस्यं यदि न भवेज्जगत्यनर्थः, को न स्यात् बहुधन को बहुश्रुतस्य ॥ आलस्यादियमवनिः ससागरान्ता, सम्पूर्णा नरपशुभिश्च निधनैश्च २५ अनर्थकारी आलस्य इस संसार में यदि नहीं होता तो यहां पे धानाढ्य और प्रखर विद्वान् कोन नहीं होता परन्तु आलस्य के कारण हि समुद्रपर्यन्त यह पृथ्वी पशुतुल्य मनुष्यों और निर्धनों से भरी हुई है । इस प्रकार अपने गुरुदेव के समीप रहकर थोडे ही समय में आपने चतुर्मुखी ज्ञान प्राप्त कर लिया था । आगमों का निरन्तर स्वाध्याय करने के कारण आप आगमों के प्रकांड वेत्ता हो गये थे । दार्शनिक ज्ञान में भी बहुत प्रगति कर ली थी । आगम तथा दर्शन की तरह आपने ज्योतिष का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया था। कवित्त रचना का सामर्थ्य भी निरन्तर अभ्यास से प्राप्त कर लिया था। काव्य कला में तो आपने इतनी शक्ति हासिल करली थी कि उस समय सारे जैन स्थानकवासी समाज में आप के द्वारा रचित स्तवन, सज्झाय सवैया' छंद आदि को धूम थी । श्रावकों तथा साधुओं को आपकी रचनाएँ इतनी अच्छी लगी, कि सब के मुह से आपकि रचनाएं सुनाई देने लगी। पूर्व पराम्परा गत मान्यतानुसार काव्य चना करने में आप सिद्ध हस्त थे । गुरुकी आज्ञा को लक्ष में रखकर साधु मर्यादा के अनुसार उदात्त भाव वाली एवं सर्व साधारण के लिए अत्यन्त उपयोगी मंगल काव्य की रचना करने में आपको सतत दृष्टि रहती थी । आपने अपने जीवन काल में ऐसी अनेक कविताएँ काव्य छन्द निर्माण किये हैं जिनमें शास्त्रों में वर्णित विषयों का सरल ढंग से समावेश किया है । अधिक क्या लिखे समस्यापुरती इसे आगे बढकर गुप्तसमस्या पुरति भी कविता बद्ध कर सकते थे। ___ इस प्रकार अध्ययन विषयक शुभ प्रवृत्तियों को आगे बढाते हुए आपने अपने गुरुदेव के सानिध्य तुर्मास शान्तिपूर्वक समाप्त किया । अपने विद्यार्थि जीवन में नम्रता, सेवावृत्ति अध्ययन परायणता आदि सद्गुणों का विकाश करते हुए गुरुदेव का पूर्ण स्नेह प्राप्त कर लिया था । चातुर्मास में आप ने संस्कृतमार्गोपदेशिका, हितोपदेश सिद्धान्तकौमदी, उर्दू, फारसी, अरबी, तथा प्राकृतव्याकरण के अध्ययन की और प्रगति की । अध्ययन की प्रगति के साथसाथ अन्य अनुकूलताएं जो उपलब्ध होती है तो वह प्रगति की चरम सीमा तक पहुंच जाती है । तदनुसार पूज्य श्री जवाहरलालजी महाराज ने अपने शिष्य मुनि श्री घासीलालजी म० को तथा श्री गणेशलालजी महाराज को विशिष्ट विद्वान बनाने की दृष्टि से महाराष्ट्र की ओर विहार करने का विचार किया । तदनुसार आपने संवत १९६७ का नौवां चातुर्मास समाप्त कर गुरुदेव श्री के साथ दक्षिण प्रान्त की ओर प्रस्थान कर दिया । बडवाहा, सनावद, बोरगांव, आशिर्गढ बुराहनपुर आदि क्षेत्रों को पावन करते हुए आप फैजपुर पधारे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy