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________________ जावरा चातुरर्मास के समय स्थानांग सूत्र का वांचन हुआ । व्यख्यान के समय महराज श्री की दृष्टि केवल सूत्रों के अर्थो पर ही सीमित नहीं रहती थी ! उनके साथ साथ अनेक प्रकार के हेतु दृष्टान्त कहानी' ढाल और उपदेशप्रद सुभाषितों के द्वारा श्रोताओं के हृदय पर सूत्र में वर्णित गंभीर आशय को अमिटरूप से अंकित करते थे, चातुर्मास काल में धर्म-ध्यान, तपश्चर्या, व्रत प्रत्याख्यान आदि बहुत अधिक परिमाण में हुए । हमारे चरितनायकजी आठ वर्ष से लगातार गुरुदेव के साथ ही विहार व चातुर्मास कर रहे थे । एक दिन के लिए भी आपने उनका साथ नहीं छोडा था। विहार या स्थिररवास प्रत्येक समय गुरुदेव के निकट आपका अध्ययन, स्वाध्याय, तथा वांचन चलता रहता था । चरितनायक श्री घासीलालजी महाराज की धारणा तथा प्रज्ञाशक्ति भी इतनी प्रबल थी कि जहां कहीं जिस शास्त्र का वांचन होता हो उसे आप कण्ठस्थ कर लेते थे । दीक्षा लेने के बाद अभीतक चातुर्मास काल में जित्तने शास्त्रों का वांचन हुआ, उन सब को गुरुदेव से पूरी धारणा कर उनके अर्थ के रहस्यो को जान कर कण्ठस्थ करलिया । केवल एक बार सुनकर आप उस चीज को ग्रहण कर लेते थे । ऐसी ग्रहण शक्ति बहुत कम व्यक्तियों की होती है ।आप. के गुरुदेव श्री जवाहरलालजी महाराज अपने समय के एक उच्चकोटि के शास्त्रज्ञ एवं प्रखरवक्ता थे । समाज में सर्वाधिक प्रभाव शाली सन्त थे । और नम्रता की प्रतिति थे । गुरुदेव से आप अत्यन्त धैर्य तथा नम्रता पूर्वक शास्त्रों का वांचन तथा अध्यापन करते थे । गुरु और शिष्य में नम्रता-मूलक एक वाक्यता थो, ईसलिए शिष्यों को शास्त्रों सीखते समय ऐसा अभास नहीं हुआ कि मैं शास्त्रों को सीख रहा है हा है. वरन् भूले हुए शास्त्रों को गुरु से श्रवण कर अपने पुराने ज्ञान को परिपक्व कर रहा हूँ। | होता था। ग्रहण शक्ति की तीव्रता के कारण आप की संस्कृत भाषा की ओर अभिरुचि खब बढी । आपने इस चतुर्मास के बीच एक सुयोग्य विद्वान से लघुकौमुदी प्रारंभ को, चातुर्मास के अन्त तक में सम्पूर्ण साधनिका के साथ उसे कण्ठस्थ करलिया । जावरा का चातुर्मास समाप्त कर आप पूज्य गुरुवर्य के साथ रतलाम पधारे, रतलाम में पूज्य आचार्य श्री श्रीलालजी महाराज आदि सन्तों के दर्शन कर आपको बडा आनन्दानुभव हुआ । वहां से पटलावद राजगढ, तेडगाव, बिडवाल, आदि अनेक क्षत्रों को पावन करते हुए कोद पधारे । कोद से नागदा पधारना हुआ। __उन दिनों कोद तथा आसपास के गांवों में वैमनस्य चल रहा था । पंडितवर्य श्री जवाहरलालजी महाराज के आगमन से एवं उनके प्रभाव शालो प्रवचन से वैमनस्य दूर होगया आसपास के गाँवों में वर्षो की फूट सदा के लिए मिट गई। इस शुभ अवसर पर कोद निवासी श्रीलालचन्दजी ने अपने विशाल 'वभव का त्याग कर वैराग्य पूर्वक पूज्य गुरुवर्य के समीप दिक्षाग्रहण की । कोद से विहार कर आप गुरुदेव के साथ इन्दोर होते हुए देवास पधारे । वि. सं. १९६७ का नौवाँ चातुर्मास इन्दोर में देवास आदि क्षेत्रों को पावन करते हुए ओप चामुर्मासार्थ गुरुदेव श्री के साथ इन्दौर पधारे । इन्दौर मध्य भारत का एक प्रमुख नगर है और होल्कर स्टेट की राज्यधानी है। जैन समाज का मुख्य केन्द्र है। और धनीकों का निवास स्थल है । पूज्य गुरुदेव श्री के आगमन से संघ में उत्सोह का वातावरण छा गया। पवित्र पुरुष अपने चरणकमल द्वारा जिस स्थान को पवित्र करते हैं, वही तीर्थ बन जाता है । उनके पवित्र जीवन से आकर्शित हो कर आस-पास के सब लोग उनके पास मंडराते रहते हैं । इस चातुर्मास काल में तपस्वी श्री मोतीलालजी महाराज ने ३९ दिन का तप किया । इनके तप के प्रभाव से इन्दौर निवासि बडे प्रभावित हुए और उन्होंने अनेक परोपकार के कार्य किये। २० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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