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________________ की ओर प्रगति निरन्तर बढने लगी । अध्ययन काल में आपकी मानसिक एकाग्रता, विषय के मर्म को समझने की दिव्य शक्ति, और साथ ही साथ परिश्रम विशेषतया उल्लेखनीय है । आपके विनय के कारण गुरुजन आपपर सदा प्रसन्न रहते थे। “विद्या विनयेन शोभते” इस सूक्त को आपने पूरी तरह हृदयंगम कर लिया था। इन सर्व कारणो से ही आपका ज्ञान निरन्तर विकसित होने लगा। ज्ञानाराधना के साथ साथ संयम निर्मलता को और भी आपका पर्याप्त ध्यान रहता था । “ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्ष मार्गः” का तत्त्व आपने अपने जीवन में उतारने का भरसक प्रयत्न किया। ज्ञान और क्रिया की निर्मल आराधना में ही आपने अपनी सफलता और कृतार्थता मानी इस प्रकार ज्ञान और तप को साधना करते हुए १९६३ का चातुर्मास गुरुदेव के साथ व्यतीत किया । चातुर्मास समाप्ति के बाद गुरुदेव के साथ अन्य क्षेत्रों की ओर विहार कर दिया । लाखोला, साहडा, पोटला, राशमी, कपासन आकोला आदि अनेक क्षेत्रों को पावन करते हुए आप अपने गुरुदेव के साथ सादडी पधारे। उस समय बड़ी सादड़ी में आचार्य महाराज पूज्य श्री १००८ श्री श्रीलालजी महाराज विराजमान थे । आपने उनके दर्शन कर अपूर्व आनन्द का अनुभव किया । आचार्य श्री श्रीलालजी महाराज ने श्री घासीलाल जी महाराज की अध्ययन विषयक प्रगति को देखकर हार्दिक सन्तोष प्रकट किया और इसी तरह सतत जागृत रह कर अध्ययन करने की प्रेरणा दी । कुछ समय तक आचार्य प्रवर की सेवा कर के आप अपने गुरुदेव के साथ विहार कर दिया । वहां से आप कानोड़ पधारे । कानोड से डूंगरा, नकूम, छोटी सादड़ी, निम्बाहेड़ा जावद नीमच मंदसौर, सीताभाऊ, नगरी, जावरा सैलाना खाचरोद होते हुए रतलाम पधारे । वि. सं. १९६४ का छठ्ठा चातुर्मास रतलाम में पज्य गरुदेव की निरन्तर सेवा करते हए हमारे चरितनायकजी का चातुर्मास पूज्य गुरुवर्य के साथ रतलाम हुआ । इस चातुर्मास में बहुत उपकार हुआ । प्रतिदिन हजारों व्यक्ति पंडित मुनिश्री जवाहरलालजी महाराज सा. के व्याख्यान का लाभ उठाते थे व्याख्यान में भगवती सूत्र एवं सुत्रकृतांग सूत्र का वांचन होता था। ___रतलाम मालवा प्रान्त का एक केन्द्र स्थान है। यहो के श्रावक शास्त्रज्ञ एवं धर्मज्ञ है। निरन्तर सन्तों की चरणरज से पवित्र होने के कारण यहां के लोगों की धर्म की और विशेष रुचि है। शास्त्रज्ञ श्रावक घृन्द प्रतिदिन दोनों समय पर व्याख्यान में उपस्थित होते थे। और भगवती सूत्र एवं सूत्रकृताङ्ग सूत्र के रहस्य को सुन कर अत्यन्त हर्ष का अनुभव करते थे । हमारे चरितनायक जी ने इस चातुर्मास के बीच भगवती सूत्र एवं सूत्रकृतांग सूत्र की गुरुदेव से वाँचना ली और उसके गूढतम रहस्यों को हृदयंगम किया इस चातुर्मास में तपस्वी सन्तों ने तपश्वर्या का उच्चतम आदर्श उपस्थित किया। सेवा भावी स्थविर मुनिश्री मोतीलालजो महाराज ने ४० उपवास, मुनिश्री राधालालाजी महाराज ने ४० उपवास, मुनिश्री पन्नालालजी महाराज ने ५१ उपवास, एवं मुनिश्री उदयचन्द्रजी महाराज ने ३६ उपवास किये। इन महान तपस्वियों के पुण्य प्रताप से रतलोम नगर धर्म ध्यान का केन्द्र बन गया । तपस्या के पूर पर धर्म प्रभावना के अनेक कार्य हुए। हमारे चरितनायक ने भी तपस्वियों की बड़ी सेवा की। और स्वयं ने भी छोटी बड़ी अनेक तपस्याएँ की। आप श्री का यहां संवत्सरि के पूर्व १२ वाँ लोच हुआ। श्रीसंघ ने जिस उत्साह से महाराज श्री को सेवामें चातुर्मास के लिए विनति की, उसी उत्साह भाव से सेवाभक्ति करके और शास्त्र श्रवण का लाभ लेकर चातुर्मास को सफल बनाया । धर्म की भी बहुत प्रभावना हुई । इस प्रकार यहां का चातुर्मास विशेष सुख शान्ति तथा बहुत उत्साह और हर्षपूर्ण वातावरण में सम्पन्न हुआ। चातुर्मास समाप्ति के बाद आप अपने गुरुदेव के साथ परवतगढ, बदनावर कोद, विड Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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