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कालू केन्नि, भवाल बलुन्दा नागोर आदि अनेक क्षेत्रों को पावन करते हुए आप पू. गुरुदेव के साथ भीनासर पधारे । वि. सं. १९६१ का तृतीय चातुर्मास बीकानेर
भीनासर से आप पूज्य गुरुदेव के साथ बीकानेर पधारे । बीकानेर संघ ने पूज्य गुरुदेव से बीकानेर में ही चातुर्मास व्यतीत करने की प्रार्थना की । बीकानेर के संघ की भक्तिवश इस वर्ष का चातुर्मास बीकानेर में ही व्यतीत करने का निश्चय किया । हमारे चरितनायक भी पूज्य गुरुदेव के साथ ही में थे । ये उपस्थित मुनि मण्डल में सब से छोटे थे ।। वय में भी छोटे और दीक्षा में भी । फिर भी चरितनायक की भद्रता सरलता विनयभाव एवं सेवावृत्ति देखकर सभी बडे सन्त इनसे बड़ा प्रेम करते थे । इनकी प्रतिभा और सेवत्ति से वे बडे प्रभावित थे । __व्यक्ति का महत्व इसी में है कि वह जहां भी रहे जिससे भी मिले उनके सहयोगी बन कर रहै । सहयोग का परस्पर आदान व प्रदान प्रगति के लिए दोनों अपेक्षित होते हैं । जो औरों की प्रगति में सहयोगी बनना जानता है । सहयोग देना आभार नहीं कर्तव्य पालन है । कर्तव्य पालन को जगत में आभार मानना बौद्धिक कुंठता व अहं का पोषण है । हमारे चरितनायकजी सहयोग लेने की अपेक्षा सहयोग देना अधिक पसन्द करते थे । उन्होंने अपने गुरुजनों से यही सीखा था निष्काम भाव से सेवा वे सम्प्रदाय के जिस किसी भी मुनि के सम्पर्क में आते अपने विनयशील व्यवहार एवं सेवावृत्ति से उसे मोह लेते थे । इनकी आरमा प्रारंभ से ही बहुत जाग्रत थी । हमेशा बड़ी सावधानी से रहते की कहीं कोई अज्ञानभाव से किसी मुनि को उाशातना न हो जाय । शरीर में आलस्य बिलकुल नहीं था अत एव गुरुजनों की ओर से आज्ञा मिल में देर भले हो हो जाय किन्तु इनकी ओर से आज्ञापूर्ति में देर नहीं होती थी । शरीर स्वस्थ हो या अस्वस्थ किसी कार्य के लिए नकार करना ये कभी जानते ही न थे । कठिन से कठिन सेवा का काम भी ये प्रसन्न मुद्रा से करते थे । आहार लाना हो पानी लाना हो पग चंपी करनी हों कुछ भी सेवा का काम हो हमारे चरितनायक एक वीर सिपाही की तरह अपने आपको सदा तैयार रखते थे। चरितनायक को वाग! में अतीव माधुर्य था । गुरुजनो के प्रति आदर एवं सम्मान की भावना उनके प्रत्येक शब्द से स्पष्टत: व्यक्त होती थी । वे नपी तुली भाषा में बोलते और प्रत्येक की पद मर्यादा का ख्याल रखते । इन्होंने बाल कंधों पर वृद्धों जैसा विवेकशील मस्तिष्क पाया था । ये प्रारंभ से ही इतने मेधावी एवं संयमशील थे कि कहीं भी अपन पद सीमा से बाहर नहीं होते थे। वि. सं. १९६२ का चातुर्मास उदयपुर
बीकानेर का चातुर्मास समाप्त कर आप पूज्य गुरुदेव के साथ नागोर पधारे । नागोर से अजमेर होते हुए आप आचार्य श्री श्रीलालजी महाराज के साथ नसीराबाद पधारे ।
नसीराबाद से तपस्वी श्रीमोतीलालजी महाराज तपस्वा श्रीराधालालजी महाराज तपस्वी श्रीपन्नालालजी महाराज तपस्वी श्री धूलचन्दजी महाराज, तपस्वी श्रीउदयचन्दजी महाराज तपस्वीश्री मयाचन्दजी महाराज पंडित प्रवर गुरुदेव श्री जवाहरलालजी महाराज एवं हमारे चरितनायक बालक मुनि श्रीघासीलालजी महाराज आदि नौ मुनिराज अजमेर, ब्यावर, पाली मारवाड़ जंकसन (खारची) सादडी आदि मुख्य मुख्य क्षेत्रों को पावन करते हुए उदयपुर पधारे ।
वि. सं. १९६२ का चातुर्मास उदयपुर में किया ।
उदयपुर का चातुर्मास बहुत महत्वपूर्ण रहा कई तपस्वी मुनियों का मिलन था । इन तपस्वी मुनियों ने लम्वी लम्बी तपस्याएँ की। तपस्वी मुनियों की प्रेरणा से स्थानीय श्रावकों ने भी बहत तपस्याए की। विविध प्रकार के त्याग प्रत्याख्यान किये ।
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