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पैसा इकट्ठा किया होगा ? यही सोचकर बडे उत्साह के साथ मुनियों को लूटने आये थे । उन्हें क्या पता था कि भिक्षा मांगकर अपनी आजीविका चलाने वाले, धन संपत्ति को तृण की तरह तुच्छ समझने वाले, परिग्रह शून्य इन मुनियों के पास रखा ही क्या है। कुछ लकड़ो के पात्र, कुछ वस्त्र और धर्म शास्त्र ही उनके पास थे। फिर सोचा-शास्त्रों के डिब्बों में अवश्य दो चार सौ की नोटें तो होगो उन्होंने मुनिश्री से एक एक डिब्बे खुलवाये । वस्त्रों की पोटलियां खुलवाई किन्तु दुर्भाग्यवश कुछ भी नहीं मिला । अभागे लुटेरों को लूटने के लिए मिले भी तो जैन साधु ही । न जाने किस मुहूर्त में लूटने के लिए ये बेचारे निकले होंगे ? लुटेरों ने सोचा-भले ही इन साधुओ के पास कुछ भी न मिला हो किन्तु इस छोटे साधु के नये वस्त्र तो हैं इन्हें ही ले लें यह सोचकर कुछ लुटेरों ने साधुओं के पास के सभी अचं कपडे छीन लिए । यहाँ तक को घासीलालजी महाराज के कमर में पहनने का नूतन चोलपट्टा सर्व सामग्री ले लि । उस समय मुनि श्री जवाहरलालजी महाराज ने लुटेरों को जैन साधु का परिचय देते हुए कहा :-हम जैन मुनि हैं । रुपया पैसा कुछ भी पास में नहीं रखतें । भोजन भी भिक्षा से प्राप्त करते हैं । वस्त्र भी भक्तों से मांगकर पहनते हैं । उपदेश देकर लोगों को अच्छा मार्ग बताते हैं । हमें लूटने से तुम्हें क्या लाभ होगा ? मुनि श्री के समझाने पर एक लुटेरे ने घासीलालजी महाराज का चोलपट्टा वापस कर दिया और बाकी के वस्त्र लेकर वे चले गए । इस अवसर पर नवदीक्षित मुनि श्री घासील जी ने जो हिम्मत और धैर्य का परिचय दिया वह अपूर्व था । वे किञ्चित भी नहीं घबराये । संयमी जीवन की यह पहली परीक्षा थी । भविष्य किसने देखा है ? कौन जाने इस साधक जीवन में कितने और कैसे कैसे कष्ट झेलने पड़ेंगे ? ऐसे ही अवसर तो अत्मा को उज्जवल बनाने के लिए आते हैं इसमें घबराने की क्या आवश्यकता है । - दूसरे दिन प्रातः होते ही मुनिश्री जवाहरलालजी महाराज ने अपनी मुनि मण्डली के साथ विहार कर दिया। अगले गांव पदराडे पहुंचने पर लोगों ने जब यह घटना सुनी तो उन्हे असह्य वेदना हो गई । उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट कर के चोरों को पूरा दण्ड देने का निश्चय किया । मुनिश्री को जब इस बात का पता लगा तो उन्होंने श्रावकों को बुलाकर रिपोर्ट न करने के लिये कहा । उनमें से एक श्रावक ने कहा-चोरों को तो दण्ड देना ही चाहिए। उन्हें दण्ड न दिया गया तो वे आपको तरह अन्य मुनिराजों को भी सता सकते हैं । मुनिश्री तो क्षमा के सागर थे । वे अपराधी को दण्ड देना अपने सिद्धांत के विरुद्ध मानते थे । इस प्रकार पदराडे से हमारे चरितनायक अपने गुरुदेव के साथ मेवाड के विविध नगरों में ग्रामों में विहार करने लगे । मेवाड के क्षेत्रों को पावन करते हुए पूज्य आचार्य श्री को सेवा में मारवाड की और पदार्पन्न हुआ । स्वल्प बुद्धि होने के कारण मुखाग्र करने में अधिक समय लगता था इस विषमता को दूर करने के लिए बाल मुनि श्री घासीलाल जी म० ने आयंबिल वर्द्धमान तप चालू किया आयंबिल तप में विगय का त्याग लुखा भोजन पानी में डालकर खाया जाता है । इस प्रकार का व्रत करना दष्कर लगता है। बाल मुनि तो आयंबिल तप को और भी दुष्कर रूप से करते थे । सुथार खिाती] जहाँ लकडी बेरते, वहां से लकडो का बारीक बूरा लाते और उसे पानी में घोलकर पी जाते । नीम के सुखे पत्ते, नीम की सुखी मंजरियां (फूल), राख आदि तुच्छ वस्तुओं को लाते और पानी में घोलकर पीते । इस प्रकार कठोर आयम्बिल तप ज्ञान वृद्धि के निमित्त करते हुए सरस्वती देवी की अनुकृपा प्राप्त की यों भी भोजन के प्रारम्भ में कुछ एक लूखी रोटी सर्वप्रथम पानी में डालकर आयम्बिल की तरह खाने के बाद ही अन्य आहार करना यह सदो का नियम बनालिया था । कठोर तपश्चर्या और निरन्तर अभ्यास को वृत्ति से आपका ज्ञानावरण को ज्यों ज्यों क्षयोपशम होता गया त्यों त्यों बुद्धि तीव्र होने लगी। जिस एक
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