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परमपूज्य आचार्य श्री घासीलालजी म. सा. का
जीवन चरित्र
प्राक्कथनजैनधर्म
जैनधर्म आत्मा का अधिराज्य स्थापित करने वाला धर्म है । अध्यात्म इसकी आधारशिला है । यह भौतिकता के संकुचित क्षेत्र में आबद्ध न होकर आध्यात्मिकता के विराट् विश्व में उन्मुक्त होकर विचरण करनेवाला है । इसका लक्ष्यबिन्दु इस दृश्यमान स्थूल संसार तक ही सीमित नहीं वरन् विराट अन्तर्जगत् की सर्वोपरिस्थिति प्राप्त करना है । इसकी संस्कृति श्रम प्रधान है इसलिए इसे 'श्रमण धर्म' भी कहते हैं । श्रमण शब्द इस बात को प्रकट करता है कि व्यक्ति अपना विकास अपने ही श्रम से कर सकता है । बिकास पतन, सुख-दुःख, हानि-लाभ और उत्कर्ष-अपकर्ष के लिए व्यक्ति स्वयं उत्तरदायी है । कोई दूसरा व्यक्ति उसका उद्धार या अपकार नहीं कर सकता । जैनधर्म का यह सिद्ध कथन है
__ अप्पा कत्ता विकत्ताय दुहाण य सुहाण य ।
अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठिय सुपछिओ ॥ ____ अर्थात् दुःख और सुख का कर्ता यह आत्मा ही है, अपना मित्र और शत्रु भी अपनी यह आत्मा ही है, यदि बुरे मार्ग पर प्रवृत्त हुए तो यही आन्मा शत्रु बनेगी और सुमार्ग पर प्रवृत्त होने पर यही आत्मा मित्र सिद्ध होगी ।" इस तरह आत्मा की शक्त पर ही अवलम्बित रह कर पुरुषार्थ की प्रेरणा देनेवाली संस्कृति श्रमण संस्कृति कही जाती है । श्रमण संस्कृति का दूसरा नाम 'समन' है जिसका अर्थ है समान भाव । जो सब आत्माओं को समान अधिकार देती है जिसमें वर्गगत या जातिपांति गत भेद के लिए कोई अवकाश नहीं है । वह 'समन' संस्कृति है। तीसरा अर्थ है 'शमन' अर्थात् अपनी वृत्तियों को शान्त रखना । इस तरह व्यक्ति तथा समाज का कल्याण श्रम, सम और शम रूप तीन तत्त्वों पर अवलम्बित है । ईन तीनों को सूचित करनेवाली संस्कृति श्रमण संस्कृति के नाम से पहचानी जाती है ।
भारत की दूसरी संस्कृति ब्राह्मण संस्कृति है और इसका आधार है ब्रह्म । इसका अर्थ है यज्ञ, पूजा, स्तुति और ईश्वर । ब्राह्मण संस्कृति इन्हीं तत्त्वों के चारों ओर घूमती है । वेद के प्रारंभ में हमें प्रकृति पूजा दृष्टिगोचर होती है अग्नि, वायु, जल सूर्य आदि की स्तुति विविध वैदिक मंत्रो के द्वारा की जाती है ।
ब्राह्मण-संस्कृति ने यज्ञ और ईश्वर के सर्वनियंन्तृत्व को स्वीकार किया । इससे माने जाने लगा कि
की जो इच्छा होगी, वही होगा । मनुष्य स्वयं कछ नहीं कर सकता । इस भावना ने निर्बलता और अकर्मण्यता को जन्म दिया । व्यक्ति की पुरुषार्थ-भावना को धक्का लगा। इसके विपरीत श्रमण संस्कृति यह विधान करती है कि मनुष्य स्वयं अपना विकास कर सकता है । वह अपने पुरुषार्थ से परम
और चरम विकास परमात्म पद को प्राप्त कर सकता है । ब्राह्मण परम्परा में व्यक्ति अपने उद्धार के लिए सदा परमुखापेक्षी रहा है । देवी, देवता ईश्वर, ग्रह, नक्षत्र आदि सैकडों ऐसे तत्त्व हैं जो व्यक्ति के भाग्य पर नियंत्रण करनेवाला, स्वाश्रयी और अनन्त शक्ति सम्पन्न है । यह सब से प्रधान और मौलिक भेद है जो ब्राह्मण और श्रमण संस्कृति में पाया जाता है ।
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