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________________ १४४ जैन साधु नहीं होसका । जैन श्रमण सत्यव्रत का संपूर्णरूप से पालन करता है । वह मन, वचन काया से न स्वयं असत्य का आचरण करता है न दूसरे से करवाता है और न कभी असत्य का अनुभोदन ही करता है । इतना ही नहीं किसी तरह का सावद्य वचन बोलना भी असत्य ही है अधिक बोलने में असत्य की आशंका रहती है, अतः जैनमुनि अत्यन्त मितभाषी होता है । जैन साधु के लिए हंसी में भी झूठ बोलना सर्वथा निसिद्ध है । प्राणों पर संकट उपस्थित होने पर भी सत्य का आश्रय नहीं छोड़ा जा सकता । जैन साधु निश्चय कारी भाषा नहीं बोलता । सत्य महाव्रत की वाणी में अविचार, अज्ञान, क्रोध, मान माया, लोभ परिहास आदि किसी भी विकार का अंश नहीं होना चाहिए । जैनमुनि त्रयोगसे सभी प्रकार की चोरी का त्यागी होता है वह मन, वचन और कर्म से न स्वयं किसी प्रकार की चोरी करता है, न दूसरों से करवाता है, और न चोरी करने वाले का अनुमोदन ही करता है । और तो क्या, वह दाँत कोतरने के लिए तिनखा भी बिना आज्ञा ग्रहण नहीं कर सकता है ! यदि साधु कहों जंगल में हो, वहां तृण, कंकर.. पत्थर अथवा वृक्ष के नोचे छाया में बैठने और कहीं शौच जाने की आवश्यकता हो तो शास्त्रोक्त विधि के अनुसार उसे शक्रेन्द्र महाराज की ही आज्ञा लेनी होती है ।अभिप्राय यह है कि बिना आज्ञा के कोई भी वस्तु ग्रहण नहीं की जा सकती और न उसका क्षणिक उपयोग ही किया जा सकता है । अचौर्य व्रत की रक्षा के लिए साधु को बार-बार आज्ञा ग्रहण करने का अभ्यास रखना चाहिये । गृहस्थ से जो भो चीज ले, आज्ञा से ले । जितने काल के लिये ले. उतनि ही देर रखे. अधिक नहीं । गृहस्थ आज्ञा भी देने को तैयार हो परन्तु वस्तु यदि साधु के ग्रहण करने के योग्य र हो तो न ले क्यों कि वस्तु लेने से देवाधि देव श्रीतीर्थङ्कर भगवान की चोरी होती है । गृहस्थ आज्ञा देनेवाला हो: वस्तु भी शुद्ध हो परन्तु गुरुदेव की आज्ञा न हो तो फिर भी वह वस्तु ग्रहण न करें क्यों किं शास्त्रानुसार यह गुरुअदत्त है अर्थात् गुरु की चोरी है । मुनि जीवन का सबसे बड़ा कठोर व्रत हैं ब्रह्मचर्य का पालन करना । ब्रह्मचर्य की साधना के लिए काम वेग को रोकना होता है । यह वेग बड़ा ही भयंकर है । जब आता है तो बड़ी से बड़ी शक्तियाँ भी लाचार हो जाती है । मनुष्य जब वासना के हाथ का खिलौना बनता है तो बड़ी दयनीय स्थिति में पहुँच जाता है । वह अपनेपन का कुछ भी भान नहीं र'वसकता, एक प्रकार से पागल सा हो जाता है। ब्रह्मचर्य का क्षेत्र बहुत व्यापक है । ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए सभी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना पड़ता है । वही साधक पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है जो ब्रह्मचर्य के नाश करने वाले उत्ते जक पदार्थों के खाने, कामोद्दीपक दृश्यों को देखने और इस प्रकार की वार्ताओं के सुनने तथा ऐसे गन्दे विचारों को मन में लाने से भी बचता है ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए जैन मुनि एक दिन की जन्मी हई बच्ची का भी स्पर्श नहीं कर सकता । उसके स्थान पर रात्रि में रहने का अधिकार नहीं है। मकान में स्त्री के चित्र हो उसमें भी नहीं रह सकतो है । मनि का पांचवाँ मुख्य व्रत है अपरिग्रह मुनि सोना, चान्दी, धन धान्य द्विपद, चतुष्पद तथा धात् की बनी हुई कोई वस्तु अपने पास नहीं रखता । समय उपयोगी वस्त्र पात्रादि भी शास्त्रोक्त मर्यादा के प्रतिकल जैनमुनि अपने पास तथा गृहस्थ के घर या स्थानकमें भी पेटी कबाटोका संग्रह कछ भी नहीं रखता । सचित्त अचित्त सभी परिग्रह का त्याग मुनि को करना पड़ता है। दोनों समय प्रतिलेखन एवं प्रतिक्रमण करना ४२ दोष टालकर आहार पानी ग्रहण करना यह जैन मुनि का मुख्य आचार है । इस प्रकार संक्षिप्त रूप से जैन मुनियों के आचार का परिचय कराने के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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