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________________ प्रसार करता है किन्तु सायंकाल का वही सूर्य अपनी प्रकाश-गरिमा को समेट कर अस्ताचल की गोद में अपने को छुपाकर आखों से ओझल हो जाता है। मानव जीवन की भी यही स्थिति है । अतः इस नश्वर मानव देह का आत्मकल्याण के लिए जितना भी उपयोग हो सके कर लेने का विचार रखता हूँ। मुनिश्री-क्या तुम साधु बनना चाहते हो? चरितनायक-यदि आपको आपत्ति न हो तो मैं साधु बनने की इच्झा रखता हूँ। दृढ और स्थायी निश्चय सफलता का मुख्य कारण है। महापुरुष अपने हित-अहित का और संभावनाओं का विचार करके एक बार जो निश्चय कर लेते हैं उससे फिर विचलित नहीं होतें । विघ्न-- बाधाएँ उन्हें अपने पथ से डिगा नहीं सकती। आपत्तियां और विपत्तियाँ उनका रास्ता नहीं रोक सकतीं। उनका संकल्प इतना प्रबल होता है कि सफलता उनकी ओर खींची चली आती है। श्री घासीलालजी ने मुनि--व्रत ग्रहण करने का प्रबल संकल्प कर लिया था; फिर संसार की कौन--सी शक्ति थी जो उन्हें विचलित करने में समर्थ होती ? मुनि श्री ने मन ही मन सोचा-किसी भी मनुष्य का असाधारण विकास पूर्वजन्म के संस्कारों के विना नहीं हो सकता । बाल्यावस्था में धर्म के प्रति इस प्रकार की प्रीति उत्पन्न होना निश्चय ही पूर्व जन्म के संस्कारों का परिपाक है । प्रथम उपदेश से ही इस बालक के मन में दीक्षा लेने की जो प्रबल इच्छा उत्पन्न हुई है वह इसके भावी उज्ज्वल जीवन की परिचायिक है । इसकी धर्म-श्रद्धा तात्कालिक भावावेश का परिणाम नहीं किन्तु चिरकाल से संचित संस्कारों का फल है । बालक दीक्षा ग्रहण कर अवश्य ही शासन की प्रभावना करेगा । बालक घासीलाल के दीक्षा विषयक दृढ संकल्प को जानकर उसे वैराग्य की कसौटी पर कसना अधिक उचित समझा । उन्होंने मुनि जीवन की कठिनता को बताते हुवे कहा घासीलाल ! दीक्षा लेने का शुभ संकल्प तो अच्छा है किन्तु मुनिजीवन तो नंगि तलवार की धार पर चलने जैसा है। संसार के सभी साधुओं की अपेक्षा जैन साधु का आचरण अत्यन्त कष्टदायक है उसकी तुलना . आस-पासमें नहीं मिल सकती । वस्त्र, पात्र आदि उपवि भी अत्यन्त सीमित एवं संयमोपयोगी ही रखता है। अपने वस्त्र पात्रादि वह स्वयं उटाकर चलता है । संग्रह के रूप में किसी गृहस्थ के यहाँ जमा करके नहों छोड़ता है। सिक्का नोट एवं चेक आदि के रूप में किसी प्रकार की भी धन सम्पति नहीं रख सकता । एक बार का लाया हुआ भोजन अधिक से अधिक तीन प्रहर ही रखने का विधान है. वह भी दिन में ही । रात्रि में तो न भोजन रखा जा सकता है और न खाया ही जा सकता है । और तो क्या, रात्रि में एक पानी का बूंद भी नहीं पी सकतो । मार्ग में चलते हुए चार मील से अधिक दूरी तक आहार पानी नहीं ले जा सकता । अपने लिए बनाया हुआ न भोजन ग्रहण करता है और न वस्त्र पात्र, मकान आदि । वह सिर के बालों को हाथ से उखाडता है, लोंच करता है । जहाँ भी जाना होता है नंगे पैरों-पैदल जाता है, किसी भी सवारी का उपयोग नहीं करता । जैनमुनि का जीवन सम्पूर्ण अहिंसक होता है । मन, वाणी एवं शरीर से कामक्रोध, लोभ, मोह तथा भय आदि की दूषित मनोवृतियों के साथ किसी भी प्राणी को शारीरिक एवं मानसिक आदि किसी प्रकार की पीडा या हानि नहीं पहुँचाना । पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा हलते चलते सभी जीवों की रक्षा करना उसका प्रथम कर्तव्य होता है । जैन साधु न कच्चा जल पीता है । न अग्नि का स्पर्श करता है । न सचित वनस्पति का ही उपयोग करता है । सदा भूमि पर चलता है नंगे पैरों चलता है और आगे साढे तीन हाथ परिमाण भूमि को देखकर फिर कदम उठाता है । मुख के उष्ण श्वास से भी किसी वायु आदि सूक्ष्मजीव को पीडा न पहुँचे इसके लिए मुख पर मुखडास्त्रिका का अहर्निशप्रयोग करता है खुले मुंह बोलनेवाला Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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