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________________ क्योंकि वे यह जानते थे कि मनुष्य की प्रतिष्ठा ईमानदारी पर ही निर्भर है । आज के सामाजिक जीवन में सब से बडी आवश्यकता ईमानदारी की लगती है। पर उसमें आज सबसे अधिक बोलबाला बेइमानी का ही हो रहा है। लोग बेइमानी को ही अपनी सफलता का आधार मान बैठे हैं। यह धारणा अधिक दृढ होती जो रही है कि ईमानदार रहकर व्यक्ति सुखी जीवन नहीं जी सकता बेईमानी का विस्तार जितना भयावह है, उससे भी अधिक भयावह ईमानदारी की निष्ठा को गिर जाना है । समाज में अच्छाईयां और बुराईयाँ सदा से रही है । जिस युग में राम था उसी युग में रावण भो था । जिस युग में कृष्ण थे उसी युग में कंस भी था । इस युग में और उस युग में अन्तर यही है कि उस युग में बुराईयां थी, किन्तु बुराईयों को सामाजिक मान्यता नहीं थी । वर्तमान युग में बुराईयां पनप रही है और उसको सामाजिक मान्यता भी दी जा रही है । गापारी कहते हैं-मिलावट, झूठा तोलमाप चोर-बाजारी कर चोरी आदि सभी लोग करते हैं और आज के जीवन में यह व्यापार का अंग भी बन गया है इसके बिना हम दो पैसे कमा नहीं सकते । सरकारी कर्मचारी कहते हैं रिश्वत सभी लेते हैं और बिना लिए इस महं. गाई में जी भी नहीं सकते हैं । अतः रिश्वत लेना कोई बुरी बात नहीं । इस मान्यता के कारण ही समाज में बुराईयों की मजबूती होती जा रही है पुराने जमाने में बुरोईयाँ होती थी। पर समाज उन्हें क्षम्य नहीं मानती थी एक बुराई की ओर सहस्रों अंगुलियां थी । यही कारण था, बुराईयां अच्छाईयों पर हावी नहीं हो पा रही थी । अच्छाई बने रहना सामाजिक जीवन जीने के लिए अच्छा बनना पडता था । ओज भी बुराईयों के अन्त का कोई मार्ग है तो यही कि समाज में नैतिक निष्ठा बनी रहे । अनैतिकता के प्रति विद्रोह होता रहे । भले और बुरे का भेद समाज समझता रहे । भलाई को वह सन्मान की दृष्टि से देखता रहे और बुराई को निरादर । अप्रमाणिक व्यक्ति कुछ समय के लिए अपने व्यवसाय में सफलता भले ही प्राप्त करले किन्तु अन्तः उसे उसके दुष्परिणाम भुगतने ही पडते हैं।ईमानदार व्यक्ति प्रारम्भ में अवश्य कठिनाईयों का कष्टों का सामना करता है परन्तु अंत तो गत्वा वह अवश्य विजयी होकर संसार में सन्मोन का भागी बनता है। ___हमारे चरितनायकजी इसी सिद्धान्त पर चलने लगे । एक आज्ञांकित वफादार सेवक के भान्ति काम करते थे । सभी छोटे बडे काम बडे उत्साह के साथ करते थे । इनकी स्फूर्ति काम करने की लगन देख कर धाकडजी इन पर सदा प्रसन्न रहते थे । श्रीमान धाकडजी की पुत्री तरावली गढ (जसवंत गढ) में ब्याही हई थी । किसी प्रसंग पर वह अपने पिता के घर आई । कुछ दिन रही । चालक घासीलाल की सरलता काम करने की स्फूर्ति व सौम्यता देखकर वह बड़ी प्रभावित हुई । जब ससुराल जाने का अवसर आया तो उसने पिताजी से कहा-"मैं घासीलाल को अपने साथ ले जाना चाहती हूँ" यह मेरे घर रहेगा । लडका शील और स्वभाव से बड़ा अच्छा है । श्रीमान भागचन्द्रजी अपनी पुत्री की इस मांग को टाल नहीं सके और उन्होंने उसे लेजाने को इजाजत दे दी । भागचन्द्रजी की पुत्री के साथ हमारे चरितनायकजी तरावलीगढ आ गये (जिसको आज जसवन्त गढ कहते हैं) और उनके घर का काम काज करने लगे । घर का भी काम करते थे साथ ही साथ खेत में जाकर उसकी रखवाली भी करते थे। मधर व्यवहार के कारण उन्होंने अपने मित्रों की संख्या बढाली । खेत में जब ये पहचते तो आस पास के बालक भी इन्हें मिलने आते । परस्पर की सुख दुःख की बातें करते । बालसाथियों की बाते बड़ी सहानु भूति पूर्वक सुनते और अपनी बुद्धि एवं अनुभव के अनुसार उसका समाधान भी करते ।" इस संसार में कोई भी किसी का मित्र नहीं है और न किसी का शत्रु भी हैं । अपना सद्-असद व्यवहार ही मित्रता और शत्रुता का कारण बनता है । यदि हमारे व्यवहार मधुर हैं, हृदय सरल हैं वाणी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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