SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ किन्तु महापुरुष विपत्तियों के आने पर उल्लास ही अनुभव करते हैं । क्योंकि विपत्तियों में ही प्रगति का मार्ग प्रशस्त होता है। वे विपत्तियों को अपना शत्रु नहीं मित्र मानते हैं । इस धरती पर सुख के सूले में झूलने वाले के चरण नहीं पूजे जाते । दुनिया आरती उसकी उतारती है जो अनगिन कष्टों को झेल कर अपने साधना बल से एक नयी दिशा, एक नया आलोक विश्व को प्रदान कर सकता है ।। प्रगति का मार्ग हास-परिहास का नहीं, बलिदान व उत्सर्ग का मार्ग है । फूलों से नहों शूलों से भरा हुवा मार्ग है । कातर व कायरपुरुषों का नहीं, धीर व वीर पुरुषों का मार्ग है । इसमें चरण बढाने होते हैं, सब शारिरीक सुखों को बान्ध कर ताक में रखने पडते हैं । “महापुरुष संकटों पर सवार होकर विपत्तियों के बीच, बाणों की बोछार झेलते हुए अपने लक्ष्य की ओर आगे बढते चलते हैं हमारे चरितनायक में महापुरुषों का यह लक्षण भी बाल्यकाल से ही विद्यमान था । माता-पिता का वियोग तो एक प्रौढ और सम्पन्न व्यक्ति भी सहन नहीं कर सकता है तो एक साधन विहीन बालक वियोग जन्य विपत्ति को कैसे सह सकता है। किन्तु धैर्यशील साहसी बालक घासीलाल ने इस विपत्ति को भी हंसते मुख सहन कर लिया । ___ जीवन में जो शून्यता आ गई थी उसकी पूर्ति होना तो असंभव था । चरितनायक आकस्मिक प्राप्त नये वातावरण में अपने आपको ढालने का प्रयत्न करने लगे। उनके सामने सबसे बड़ी समस्या थी अपने जीवन निर्वाह की । यद्यपि गांव में काका, काकी रहते थे और उनके आग्रह से वह उनके यहां रहने भी लगे थे किन्तु उन्हें दूसरों के सहारे जीना अच्छा नहीं लगा । उन्हें अपनी मां के वे शब्द सदा याद आते थे-"बेटा ! भाग्य के भरोसे बैठ रहने पर भाग्य सोया रहता है और हिम्मत बांधकर खडे होने पर भाग्य भी उठ खडा होता है । पुरुषार्थ ही सफलता का सर्वोत्तम मार्ग है। पुरुषार्थ भाग्य का फलित ही नहीं करता अपितु नये भाग्य का भी निर्माण करता है । प्रतिकूल भाग्य को अनुकूल बनाने का तो इसमें अद्भुत सामर्थ्य निहित है । "उसने मां के इस स्वर्ण सूक्त को पुरुषार्थ की कसौटी पर कसने का निश्चय किया । सोचा-बनोल जैसे छोटे गांव में एवं काका काकी के सहारे मैं अपने भाग्य का निर्माण नहीं कर सकता । परदेश जा कर ही मैं अपने भाग्य को आजमाऊंगा।" बनोल से नाथद्वारा बडा है । वैष्णवों का सबसे बड़ा तीर्थस्थल भी । वहां अनेक देश विदेश के लोग भी यात्रार्थ आया करते हैं मुझे वही जाना चाहिये। एक दिन अवसर पाकर उसने अपने काका से अपने मन की बात कही। काका ने पहले तो बात को टालने का प्रयत्न किया किन्तु विशेष आग्रह देखा तो उसे नाथ द्वारा जाने की आज्ञा दे दी। राही को राह मिल ही जाती है देर सबेर हो भी जाए यह संभव है किन्तु राह न मिले यह कभी सम्भव नहीं । एक दिन सूर्योदय हुआ । काका काकी को प्रणाम किया और अकेला ही नाथद्वारे के राह पर चल पडा । मार्ग का कष्ट कुछ कम नहीं था । खाने पिने का साधन भी नहीं था । अन्तहदय की आदर्श प्रेरणा ही इस महान यात्री का जीवन सम्बल था। भूखा-प्यासा बालक घासीलाल जैसे तैसे नाथद्वारा पहुच तो गया किन्तु वहां पहुचने के बाद उसके सामने सबसे बड़ी समस्या थी कहां जाना और कहां ठहरना । उसके लिए सारा गांव अपरिचित था। इधर उधर भटकते एक दिन यह भागचन्दजी सा. धाकड की दूकान पर पहुंचा । भोली सूरत, ग्रामीन भाषा तेजस्वी भाल को देख भाग वन्द्रजी ने नवागन्तुक बालक से पूछताछ की और उसे अपने यहां घर के काम काज के लिए रख लिया । बालक घासीलाल धाकडजी के घर काम करने लगा । धाकडजी के घर काम करते समय आपके जीवन का मुख्य लक्ष्य था कठिन श्रम और ईमानदारी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy