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________________ १३७ में समर्थ होता है । उन्नति के पद पर आरोहन करने के इच्छुक, मानशाली धीर पुरुष आपत्ति निवारण करने में समर्थ अपने पुरुषार्थ का आश्रय लेना उचित समझते हैं । शूरवीरों का पुरुषार्थ ही सच्चा सहायक होता है । मां की इस प्रकार की प्रेरणा से बालक घासीलाल सतत परिश्रम करने लगा । मां को कम से कम कष्ट हो इस बात का पूरा ध्यान रखता था । मां भी यही चाहती थी कि मेरा बालक भावी पीढी के लिए एक आदर्श दृष्टान्त बने । संसार में समाज का निर्माण माता ही करती है । प्रत्येक मनुष्य बहुत कुछ अपनी माता का बनाया हआ होता है। व्यक्तियों के समूह से समाज बनता है और व्यक्तियों को माता बनाती है। इस तरह माता ही समाज बनाने वाली है । यदि माताएं चाहें तो आदर्श समाज बना सकती है । मातृशक्ति की महिमा अपार है। सन्तान को उदार, श्रमशील, स्वावलम्बी बनाना माता का ही काम है । माता ही पुत्री को आदर्श गृहीणी और जननी तथा पुत्र को सदाचारी एवं यशस्वी बना सकती है। माता की महिमा पिता से भी बडी है । क्योंकि वह संतान को नव मास तक अपने गर्भ में धारण करके उसे अपने रक्त के रस से पोसती है और फिर संसार में पैदा करके जबतक जीती है तबतक पालती है। माता का कोमल झोड ही शान्ति का निकेतन है। माता का हृदय बच्चे की पाठशाला है। हमारे चरित नायकजी पर पिता की अपेक्षा माता का ही अधिक प्रभाव पडा था । ये सदैव कहा करते थे-"मेरी मां उदार गम्भीर एवं भव्य प्रकृति की नारी थी । माता का अकृतिम स्नेह मुझे सीमा से अधिक मिला था । मैं उन दिनो माता की छत्र-छाया में बहुत ही आनन्द विभोर रहा करता था ।" मातृ वियोग संसार का यह नियम है कि प्रत्येक प्राणी को चाहै राजा हो या रंक, सज्जन हो या दुर्जन सभी को अपने संचित शुभाशुभ कर्म का फल भोगना ही पड़ता है । बहुत सी बार निर्दोष दिखनेवाले अबोध बालक भी कर्म के शिकार दिख पडते हैं, भले ही वर्तमान में कोई पाप-कर्म उनके दृष्टिगोचर नहीं होते हो किन्तु वे पूर्व संचित अवश्य होते हैं और जिस तरह के शुभाशुभ कर्म मनुष्य के जीवन में संचित उसी तरह के संयोग भी सामने आकर उपस्थित हो जाते हैं। उन संयोगों के अनुसार उसका जोवन बनता है। अस्तु ! बारह वर्ष को कोमल अवस्था में ही हमारे चरितनायक को सदा के लिए मां की शीतल छाया से वंचितहोना पडा । पति वियोग एवं कठोर श्रम से विमलाबाई का स्वास्थ्य प्रति दिन गिरने लगा । औषधोपचार में किसी प्रकार की कमी नहीं रखी गई किन्तु जिसकी जीवन डोर खड़ित हो गई, उसे जोडने का सामर्थ्य किसमें हैं ? सारे उपचार व्यर्थ गये और एक दिन अपने लाडले पुत्र को छोड अज्ञात पथ की ओर चल दी । एक किशोर वय के बालक पर कुदरत का कितना भीषण वज्रपात ! किन्तु संचित कर्मों को यही इष्ट था । शायद कर्मदशा आपका बचपन से ही स्वावलम्बन का पाठ सिखाना चाहती थी इस लिए माता-पिता की आराममय छत्र छाया से आपका वञ्चित कर दिया । समझना चाहिए कि पुरातन पावन पथ में प्रवेश करने का यह प्राकृतिक संकेत था। माता और पिता का आश्रय हट चुका था । अब उन्हें अपनी योग्यता द्वारा ही आश्रय प्राप्त करना था । बारह वर्ष की अल्पअवस्था में ही उनपर अपने जीवन निर्वाह का भार आ पडा । जो व्यक्ति आगे चलकर एक विशाल समाज का नेता बनने वाला हो उसके लिए प्रकति यह कैसे सह सकती है कि वह दूसरों के आश्रय पर पले । उसे तो बचपन से ही भयंकर आपत्तियों को हँसते-हँसते सहने का पाठ सीखना पडता है । विपत्ति की संभावना मात्र से साधारण व्यक्ति भयभीत हो जाता है और जब विपत्ति सन्मुख आ जाती है, तो घबरा उठता है। उसकी यह घबराहट स्वयं एक भयानक विपत्ति बन जाती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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