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पर दुःख का वज्र टूटपडा किन्तु मां की स्नेहमयी गोद की शीतल छाया से उसे पिता का वियोग इतना नहीं अखरा ।
संसार में स्थायित्व के नाम पर क्या स्थिर है । कुछ भी नहीं ? स्नेह और ममत्व भी बहकाए और बटाए बँट जाते हैं । स्नेह का स्रोत एक दिशा में बहते-बहते दूसरी दिशा में बहने लगता है । पत्नी का सम्पूर्ण स्नेह पति और पुत्र में केन्द्रित था । पति के स्वर्गवासी होने के बाद माता विमलाबाई का स्नेह पुत्र पर आधारित हो गया । बालक घासीलाल की भोली सूरत मधुर मुस्कान और हृदय को उल्लसित करने वाली मीठी बाते और अपनी गोद में सोते अपने लाडले को देख-देखकर वह उल्लास से भर जाती थी। विपत्ति की गहरी छाया में - माता जानती थी, स्वजन-वैसे तो सभी स्वार्थ में डूबे हुए हैं । सारा संसार ही स्वार्थ की आग में जल रहा है । निरर्थक दूसरों की भलोई किसको सूझती है ? वे दिन वह समय अब नहीं है कि स्व
और पर हित चिन्तन मनुष्य साथ-साथ किया करता था । इसके पिता बार बार कहा करते थे-घोसीलाल की मां ! मेरी आंखे बन्द हो जाएगी तो तेरा और घासीलाल का क्या होगा ? मैं उन्हें कहा करती थी-आप ऐसी अशुभ कल्पना क्यों करते हो मेरा यह कहना, आज सोचती हूं झूठी सान्त्वना थी । झूठी हो या सच्ची, वे तो अनन्त पथ के पथिक हो गये अपनी राह चले गये । न जाने कौन सी अज्ञान शक्ति है जो अनजाने में ही हमारे 'अपने' को अपने पास बुला लिया करती है । शायद उनको न्याय नीतिमय जीवन जीते हुए यह दीखने लगा था कि मैं चला जाऊँगा और घासीलाल बे सहारा हो जाएगा मैं उनकी बात को टाल दिया करती थी। जब तब यह भी कहती 'वीरभूमि मेवाड का जाया जन्मा अपनी आन और शान पर मरता मिटता आयो है । विपन्नावस्था में भी वह पराजय नहीं स्वीकार करता है । श्रम के कण ही मेवाड के मोती है । पिछला इतिहास बताता है, श्रुति परम्पर के मुँह सुनती आई हूं-मेवाड की मिट्टी के रजः कणों में लोट-लौट कर बडा होने वाला मे का भोला, बडों का आदर करने वाला एवं अपनी आन-शान को प्राण-प्रण से निभाने वाला होता है। वह किसी के सामने अपेक्षा आकाँक्षा के लिए हाथ पसार कर अपनी दीनता नहीं दिखाता । आज इस सत्य की कसौटी का दिन आ गया है इस चिन्तन से धैर्य धर्मशील नारी के हृदय का स्वाभिमान जाग उठा । उसने दूसरों के सहारे जीना दीनता की निशानी समझा । परमुखापेक्षी रहने के बजाय स्वाश्रय से जीवन व्यतीत करना ही श्रेयस्कर माना । अतीत के सलोने अलोने सब स्वप्न विसार, श्रमकर सुख पर्वक रहने लगी । अपने छोटे-छोटे हाथों से पुत्र घासीलाल भी, मां के काम में हाथ बटाने लगा । अपनी सुकुमारता का त्याग कर अत्यन्त कठिन परिश्रम करने लगा । अपने खेत में पहुंचता । और अपने हाथों से घास भी काटता । गाय और भैसों की रखवाली भी करता और खेतों को पानी भी पिलाता । इस प्रकार श्रमपूर्वक जीवन निर्वाह करने वाले माता एवं पुत्र अत्यन्त सुखी थे । दोनों का एक छोटा-सा संसार था । मां अपने बेटे को बता देना चाहती थी कि स्वार्थ से सराबोर इस संसार का बरताव देख ले । बडा होकर किसी से आस मत करना । अपना किया ही अपने काम आता है । अपने श्रम से हि त आगे बढ । अवश्य ही तुझे अपने लक्ष्य में आशातीत सफलता मिलेगी । पौरुष से ही अभिय की सिद्धि होती है । पौरुष से ही चिन्तनशील व्यक्तियों का विकास होता हैं । जो लोग उद्योग न कर केवल भाग्य के भरोसे ही बैठे रहते हैं वे कभी भी अपने साध्य को नहीं पा सकते । आलसी मनष्य अपने ही शत्र बनकर अपना आमेत नुकशान कर डालते हैं । जीवन की नौका को मझधार में डबोकर अपना अस्तित्व ही समाप्त कर देते हैं । श्रमशील मनुष्य ही अपने देश व समाज का उन्नयन करने
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