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भविष्यवाणी से धक्का लगा । परन्तु वह एक गम्भीर और धीर प्रकृति की माता थी। बहुत शीघ्र ही सम्भल गई और कहने लगी कि "आप क्यों चिन्ता कर रहे हो ? जो होनहार है वह होकर ही रहेगा। हम तुम इस नियति के विधान में क्या उलट फेरकर सकते हैं ? मुझे तो कोई चिन्ता नहीं हैं । मेरा घासीलाल कहीं भी रहे, कुछ भी बने बस आनन्द में रहें, यही. प्रमु से प्रार्थना करती है। यह ऋषि बनकर यदि स्वपर का कल्याण करता हैं तो इसमें क्या बुरा है । माता विमलाबाई के इस शब्द से प्रभुदत्तजी को धीरज आया प्रभुदत्तजी अब अपने इकलौते लाडले पुत्र की ओर विशेष ध्यान रखने लगे। ____ मानव जीवन अनेक प्रकार की विषम परिस्थितियों का केन्द्र है। इसमें अनेक तरह के उतार चढाव दृष्टिगोचर होते ही रहते हैं । जीवन यात्रा में इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग यह जीव के स्वोपार्जित शुभाशुभ कर्मों के ही परिणाम हैं । इसी नियम के अनुसार यह मानव सुख-दुःख का अनुभव करते हुए अपनी भव-स्थिति को पूरा करता है। श्री प्रभुदत्तजी की आशालता अभिपल्लवित भी न होने पाई थी कि कराल काल की भयंकर अग्नि में वह भस्म हो गई । जब घासीलाल दस वर्ष के भी नहीं हुए थे तभी इनकी अचानक मृत्यु हो गई । इन्हें अपने प्रिय पुत्र की साहस पूर्ण बालचर्या में बीज रूप से रही हुई गुणसन्तति के भावी विकास को देखने का पुनीत अवसर नहीं मिल सका। पिता की मृत्यु से बालक घासीलाल एवं उनकी मातुश्री विमलाबाई पर वज्र टूट पडा । अब इन सर्व को चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार दृष्टिगोचर होने लगा । नारी का गर्व, सुख, अभिलाषा, उसका सब कुछ उसके सौभाग्य पर
। है । यदि वह सुहागिन बनी रही तो वह इस लोक को स्वर्ग मानती है । चांद को सुधाकर कहती है और दःख में भी फली-फूली फिरती है यदि उसका सुहाग-बाग हरा भरा और फलाफला न रहा तो उसके लिए यह अनोखा संसार उतना ही निस्सार हो जाता है कि जितना योगियों के लिए भी नहीं होता । भारतीय परिवार को स्वर्गीय सुखों का लीला-स्थल बनाने वाली आर्य कुलांगना के अनेक रूपों में पत्नी और जननी का रूप सर्वांपेक्षा और महिमा मण्डित है किन्तु जिस समय हिन्दू परिवार की विधवा पर दृष्टि पडती हैं उस समय सारी कामनाओं का भस्म रमाकर बैठी एक तरुण-तपस्विनी ही ध्यान में आती है। उसके चारों ओर सर्वेन्द्रिय सुखों की चिन्ताग्नि धधकती रहती है। उसकी लालसाओं की लोल-लहरे किसी किनारे तक नहीं पहुँचने पाती । उसकी अभिलाषोओं की अल्हड-आन्धी हृदय में हाहाकार मचाकर उद्धत बवंडर की भान्ति उसके मस्तिक में चढ जाती है । संयमशीलता का कैसा निष्ठर निदर्शन है । सहिष्णुता की फैली गगनाकार सीमा हैं । आत्म त्याग को कैसा ज्वलंत आदर्श है ? समाजिक शाम का कितना भयंकर चित्र है।
___ पति की अचानक मृत्यु से विमलाबाई को जो असह्य दुःख के बीच यदि कोई सहारा था तो वह अपने पुत्र का ही। देहातों में मुष्किल से ऐसे कुछ इने-गिने परिवार मिलेंगे जिनमें विधवाओं पर वस्तुतः उतना ही ध्यान दिया जाता हो जितना सधवाओं को सहज सुलभ है । हा देव ! आँगन और घर में चारों ओर लालसाओं की ज्वाला धधक रही है, नाना प्रकार के मंगल मोद महोत्सव मनाये
हे हैं पर किसी व्यक्ति के हृदय को बेचारी करुण-कातर विधवा की मर्म वेदना छूने भी नहीं पाती । वह दूर ही से सब कुछ देखकर मन ही मन आह भरती और चुपके से आंसू पोछ कर परिवार वालों के सुख संवर्द्धन में हाथ बटाती है । आखिर क्या करे ? हिन्दू परिवार से विधवा का का दायभाग भी तो नहीं? उपसे भर मुंह मीठो बात बोलने वाला कोई सहृदयी भी तो नहीं है। ताने और तिरस्कार के सिवा उसे समाज में और कुछ भी प्राप्त नहीं होता । पति के स्वर्गवास के बाद विमलाबाई पति वियोग में अत्यन्त दुःखो और व्याकुल रहने लगी पिता के मृत्यु से बालक घासीलाल
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