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इसकी प्रशंसा करते थे । चारों ओर से इसे बडो आदर मिलता था। घासीलाल संस्कारी बालक था । अतः इसमें विनय, विचार शीलता, मधुर वाणी और व्यवहार शीलता दृढता आदि गुण खूब विकसित हुए थे । एक गण इनमें विशिष्ट था--चिन्तन करने का । जीवन की हर घटना पर यह विचार और चिन्तन करता रहता था । अपने साथियों के साथ खेल कूद भी करता था, परन्तु उसकी प्रकृति की गम्भीरता व्यक्त हुए बिना नहीं रहती । वह खेलता कूदतो भी था नाचता गाता भी था, हँ - हँसाता भी था और रूठता मचलता भी था । बालस्वभाव सुलभ यह सब कुछ होने पर भी उसकी प्रकृति की एक विलक्षणता थी चिन्तन
और मनन । प्रकृति के परिवर्तनों की घटनाओं को बडे ध्यान से देखा करता और उन पर घंटों तक विचार करता रहता था । जब कमो अवसर मिलता था यह आस पास के जंगल में चला जाता और घंटों वृक्षों के सघन झुरमुटों में घुमता ओर वृक्ष की शीतल छाया में बैठकर किसी वात के निन में निमग्न हो जाता था, प्रारम्भ से ही इसे एकान्तवास प्रिय था । इस की इस एकान्तवास प्रियता को देखकर घर के माता-पिता और अन्य बडे बूढे आश्चर्य करने लगते थे । बाल मस्तिष्क से जब कभी वृद्धों जैसे सुलझे हए गंभीर विचार निकलते थे तो सुनने वाले सहसा चकित से हो उठते थे ।
प्रभुदत्तजी रामानन्द संप्रदाय के अनुयायी होने के कारण इनके घर वैष्णव साधु सन्तों और महन्तों का आगमन अधिक रहता था । गांव के लोग श्रद्धालु थे और जहां श्रद्धा एवं भक्तिभावना अधिक होती है वहीं साधु सन्तों का निवास भी प्रायः होता रहता है । बालक घासीलाल जब कभी साधु, सन्तों, महन्तों को देखता तो बड़ा प्रसन्न हो जाता था । घन्टों तक उनके पास बैठ कर उनको धार्मिक बाते सुनता और उस पर विचार करता था । निरन्तर सतसंग के कारण चरितनायक को कबीर, दादू और अन्य वैष्णवाचार्य की सैकडों वाणियां (कविता) कंठस्थ हो गई थी । प्रभुदत्तजी अपने प्रिय पुत्र की इन चेष्टाओं
दम से देखते रहते थे । वे कल्पना करके भी कल्पना नहीं कर पा रहे थे कि पुत्र का भविष्य
की ओर जाने वाला है । एक बार एक ज्योतिषशास्त्र का पण्डित घूमता घामता प्रभुदत्तजी के पर पहंचा । प्रभुदत्तजी ने उसको भोजनादि से सत्कार किया । भोजन के पश्चात प्रभुदत्तजी ने पण्डितजी मे बालक घासीलाल का भविष्य पूछा । जन्म पत्रिका को देखकर ज्योतिषी ने अत्यन्त गम्भीर भाव से कहा प्रभदत्तजी ! यह बालक साधारण ब्राह्मण न रहकर ब्रह्मर्षि बनने का संस्कार लाया है। ज्योतिषी के मख से यह बात सुनते ही प्रभुदत्तजी गम्भीर हो गये । पुत्र का भविष्य सुन्दर होते हुए भी अपने लिए असुन्दर मालूम हुआ। वे सहसा गहरी चिन्ता में निमग्न हो गये।
मौभग्यवती विमलाबाई ने यह दशा देखी तो वह स्भंभित-सी हो गई । उसका मन समझ न सका कि आखिर जन्म पत्रिका में चिन्ता को क्या बात है ? उसने पूछा कि "क्या बात है? आप लोग इतने चिन्तित क्यों नजर आ रहे हो ? मेरे घासीलाल का जीवन जोग तो अच्छा है न ? पण्डितजी ने कहा सो अच्छा है परन्तु यहां तो कुछ ओर ही प्रभु को माया दिखाई दे रही है । घासीलाल की
तो ऋषि होने का योग पडा हैं । इनके महान भविष्य से घर को तो लाभ नही होगा किन्तु अपने कार्य से सारे देश को उपकुत करेगा । देख नहीं रही हो, अब भी घासीलाल किन संस्कारों में बहा जा रहा है । वह घर की अपेक्षा साधु सन्तो की सत्संगति में अधिक रस लेता है । हमारे लिए
खतरे की घन्टी है ।" माता रिमलाबाई के कोमल हृदय को एक बार तो इस चर्चा से मर्मभेदी चोट पहंची माता आखीर माता है । वह अपने पुत्र के उज्ज्वल भविष्य सम्बन्धी सुनहले स्वप्नों से सदा घिरि रहती हैं । भला कौन ऐसी माता है जो अपने पुत्र के सुन्दर भविष्य को इस प्रकार भिक्षु जीवन में परिवर्तित होने की कल्पना को सहसा सहन कर सके ? हमारे चरितनायक की माता को भी उपयक्त
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