SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बालक घासीलाल कुछ ऐसी ही विशिष्ट रूप सम्पदा का धनी था । अत: वह सबको प्रिय लगने लगा । "होनहार विरवान के होत चिकने पात" इस उक्ती के अनुसार बालक को सुख मुद्रा पर होनहारता के स्पष्ट चिह्न दिखाई देते थे बुद्धि की कुसाग्रता तो इसकी जन्म-जात विशेषता थी बालक घासीलाल के जन्म के बाद उनके माता-पिता को अधिक से अधिक अनुकूल संयोगों की प्राप्ति होने लगी । यह तो स्पष्ट है कि पुण्यात्मा का जिस घर में प्रवेश होता है लक्ष्मी और सुख समृद्धि छाया की तरह उसकी अनुगामी होती है। बालक घासीलाल के पुण्य प्रभाव से वैरागी प्रभुदत्तजी के भाग्य का सितारा चमकउठा उनका यश और समृद्धि बढ़ने लगी इस समृद्धि का कारण माता-पिता बालक के पुण्य प्रभाव का फल मात्र समझते थे । अतः माता की ममता और पिता का प्रेम बालक पर विशेष रूप से उमड़ पड़ा बालक. घासीलाल माता-पिता की वात्सल्यमयी गोद में दूज के चान्द की तरह बढ़ने लगा । बाल सुलभ चेष्टाओं और अपनी सुकुमार मुखाकृति से वह अपने माता-पिता को आनन्दित करने लगा। उसकी एक मधुर मुसकान से माता-पिता के सुख का सरोवर तरंगित हो उठता था उसकी स्वाभाविक किलकारियों से उनके मानस प्रमोद से भर जाते थे । शिक्षा और संस्कारः बालक प्रकृति की अनमोल देन है, सुन्दरतम कृति है, सबसे निर्दोष वस्तु है । बालक मनोविज्ञान का मूल है, शिक्षक की प्रयोगशाला है । बालक मानव-जगत का निर्माता है । बालक के विकास पर दनियां का विकास निर्भर है । बालक की सेवा ही विश्व की सेवा है।" इस सिद्धान्त को हमारे चरितनायक के माता-पिता अच्छी तरह समझते थे अतः वे अपने उत्तम आचरण के द्वारा बालक में उत्तम संस्कारों के बीजारोपण करने लगे । बाल्यावस्था में प्राप्त होनेवाले संस्कारों का जीवन निर्माण में बहुत बडा हाथ होता हैं । बालक के द्वारा ग्रहण किए संस्कारों के अनुसार ही उसका जीवन बनता है और बिगडता है । बालक-जीवन एक उगता हुआ पौधा है । उसे प्रारंभ से ही सारसंभाल कर रक्खा जाए, तो वह पूर्ण विकसित हो सकता है । बडा होने पर उस पौधे को सुन्दर बनाना माली के हाथ की बात नहीं है । आपने देखा होगा घडा जब तक कच्चा होता है तब तक कुम्हार उसे अपनी इच्छा के अनुरुप जैसा चाहे वैसा बना सकता है । किन्तु वह घडा जब आपाक में पक जाता है, तब कुम्हार की कोई ताकत नहीं कि यह उसे छोटा या बडा बना सके, उसकी आकृति में किञ्चित् परिवर्तन कर सके । यही बात बालकों के सम्बन्ध में भी है । माता पिता चाहे तो प्रारंभ से ही बालकों को सुन्दर क्षा और सुसंस्कृत वातावरण में रखकर उन्हें होनहार नागरिक बना सकते हैं । वे अपने स्नेह और आचरण की पवित्र धारा से देश के नौनिहाल बच्चों का वर्तमान एवं भावी जीवन सुधार सकते हैं। बालक माता पिता के हाथ का खिलौना होता है । वे चाहे तो उसे बिगाड सकते हैं और चाहें तो सुधार सकते हैं। देश के सपूतों को बनाना उन्हीं के हाथ में है। दुर्भाग्य से आज इस देश में घृणा, विद्वेष, छल और पाखण्ड भरा हुआ है । माता-पिता कहलाने वालों में भी अनेक दुर्गुण भरे पडे हैं । जैसे दारुपिना मांसखाना तमाखु वि. धुम्रपान करना सिनेमा देखना बेटाइम फिरते रहना गालिये बोलनी लडना झघडना द्वेष क्लेश में रक्त रहना वचनकी अप्रमाणिकता असत्य चोरीमय व्यवहार करना दुराचारो मय ज्यां जीवन है । ऐसी स्थिति में वे अपने बच्चों में सुन्दर संस्कारों का आरोपण किंस प्रकार कर सकते हैं ? प्रत्येक माता-पिता को सोचना चाहिए कि हमारी जिम्मेदारो केवल सन्तान को उत्पन्न करने में ही पूर्ण नहीं हो जाती बल्कि सन्तान को उत्पन्न करने पर तो जिम्मेदारो का आरंभ होता है। और जब तक सन्तान को सुशिक्षित एवं सुसंस्कार सम्पन्न नहीं बना दिया जाता, तब तक वह पूरी नहीं होतीं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy