________________
१३०
अपना सुख-दुःख नहीं समझता, जो परिवारिक जनो के प्रति भी आत्मीयता की भावनों नहीं रख सकता और अपने आनन्द के लिए उसने अपने आपको अलग कर देता है वह अपने पडौसी के प्रति सहानुभूति कैसे रख सकेगा ? वह जगत के प्राणीमात्र को अपना किस प्रकार समझेगा ? उसमें विश्वप्रेम को ज्योति कैसे जगेगी ? जहां स्वार्थ का घोर अन्धकार व्याप्त है, वहां उदारता का आलोक कैसे चमकेगा ? पश्चिम की स्वार्थपूर्ण जीवन नीति हमारे देश की उदारता जीवन नीति की तुलना है। विभक्त परिवार की विचार धारा पश्चिम की देन हैं । इससे हमारे देश की संस्कृति को आघात लगा है । हमारे यहां की जीवन नीति हमें उदारता और व्यापकता की ओर अग्रसर करने वाली है, जब कि पश्चिम की नीति मनुष्य को स्वार्थी और संकीर्ण बनाती हैं ।
सम्मिलित एवं संगठित परिवार बडी आनन्द दायक वस्तु है । अतएव मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने परिवार में सदा हिल मिल कह रहे । परिवार के जनों को अपना समझे । उनके सुख को अपना
और उनके दुःख को अपना दुःख समझे । निष्पक्ष भाव से सब के साथ वर्ताव करे पक्षपात की दृष्ट भावना चित्त में न आने दे । जिस परिवार के सभी व्यक्ति ऐसी ऊँची और उदार भावना रक्खेंगे वह परिवार सभी दृष्टियों से उत्तम बन जायेगा । ऐसे परिवार में पले बालक भी उदार धर्म की वृद्धि भी होगी ।
विमलाबाई को यह उदात्त शिक्षा मायके में ही मिली थी । अतएव उसने अपने ब्यक्तित्व को सिकोड कर अपने तक ही सीमित नहीं रक्खा था अपने पति आदि को भी उसने अपने 'अहम' की परोधि में समाविष्ट कर लिया था । यह तो संभव नहीं हैं कि दो व्यक्तियों के विचारों में कभी भिन्नता न हो कभी न कभी मतभेद तो हो ही जाता है । ऐसे अवसरों पर दोनों को सहनशीलता से काम लेना चाहिए प्रथम तो दोनों मिलकर प्रेम से मतभेद को मिटा लें । नहीं मिटता हो तो कोई अपना विचार किसी पर जबर दस्ती थोपने का प्रयास नकरे । दोनों अपना अपना विचार रखे । काई हठ न करे । विमलाबाई
और प्रभुदत्तजी दोनों इस तथ्य को समझते थे । अतएव उनके आपसी सम्बन्ध में कभी मलीनता नहीं आने पाई । हृदय में कभी कटुता नहीं आई । सचमुच ऐसे दम्पति सराहनीय हैं वे देश और जाति के लिए आदर्श रूप हैं ।
शुभ जन्म:
नारी में मां बनने की सर्वदा भूख होती है । उसके जीवन की सबसे बड़ी साध (भावना) होती है सन्तान प्राप्ति । सन्तान का अभाव उसे प्रतिक्षण खलता है । पुत्र का हँसता मुखड़ा उसके सामने न हो तो उसका हृदय चित्कार कर उठता है । पुत्र का स्नेह पाने को वह सतत तृषित रहती है।
विमलाबाई सब तरह से सुखी थी प्रभुदत्तजी जसे आदर्श पति को पाकर वह अपने आप में अत्यन्त संतुष्ट थी किन्तु उसे एक दुःख था अपनी गोद का सूनापन । नीतिज्ञों ने ठीक ही कहा है " अपुत्रस्य गृहं शून्यम्" पुत्र होन का घर सूना है । वास्तव में पुत्र हीन का घर ही नहीं, जीवन भी शून्य है । ऐसे घर और उजडेवन में क्या अन्तर है ? गृहस्तों को पुत्र की लालसा स्वभावतः होती है। पुत्र का अस्तित्व जीवन को सरस और आइलादमय बनाता है । इधर उधर से काम का मारा, नाना चिन्ताओं से व्याकुल मनुष्य जब घर में प्रवेश करता है और खिलखिलाता हुआ एवं अपने मधुर हास्य से अमृत की वर्षा करता हुआ, बालक सामने दौड़कर पैरों से लिपट जाता है, तो वह थोड़ी देर के लिए अपनी थकावट को भूल जाता हैं और चिन्ताओं से भी मुक्त हो जाता है ? बालक की सरल और मधुर मुस्कान मनुष्य को चिन्ताओं के चोड़ वन से निकाल कर आनन्द के ज्योतिर्मय लोक में पहुँचा देती है। इसके
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org