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________________ १२९ पति के अनुरूप पत्नी और पत्नी के अनुरूप पति का प्राप्त हो जाना गार्हस्थिक दृष्टि से बडे सौभाग्य की बात समझी जाती हैं । वास्तव में पुण्य के योग से ही ऐसी जोडी मिलती हैं । फिर इस अनुरूपता में यदि धार्मिकता कि सुन्दर तक का समावेश हो तब तो कहना ही क्या हैं दम्पति की धर्मनिष्ठा समग्र परिवार में धर्म को भावना जागृत कर देती है। पति-पत्नी का समान स्वभाव, समान शील, समानधर्म, समान रुचि और समानवय होने पर गृहस्थी सुखमय बन जाती है । इस दम्पति का गृहस्थ जीवन भी आनन्द मय था सुख पूर्वक अपनी जीवन नौका को अग्रसर कर रहे थे। और ऐसा क्यों न होता ? प्रमुदत्तजी और विमलाबाई के स्वभाव में बड़ी ही सात्विकता और सहिष्णुता थी। दोनों एक दूसरे से बड़े ही संतुष्ट थे । दोनों का जीवन बड़ा संयत था । कम से कम आवश्यकता उनके जीवन का लक्ष्य था यद्यपि उन्हें सभी प्रकार को सुख सामग्री उपलब्ध थी फिर भी उसमें उन आसक्ति नहीं थी। दोनों का जीवन सादगी पूर्ण था । पत्नी कभी अपनी जल-जलूल फरमाईशें करके पति को परेशान नहीं करती थी । और पति अपनी पत्नी की बात की कभी उपेक्षा नहीं करते थे । इस प्रकार इनकी छोटी-सी गृहस्थी आदर्श गृहस्थी थो । जहां धर्मकी प्रधानता होती है, वहाँ अशान्ति को स्थान नहीं मिलता और सब प्रकार आनन्द छाया रहता है । वह तथ्य प्रभुदत्तजी और विमलाबाई की गृहस्थी को देखकर अनायास ही समझा जा सकता था। श्रीमती विरलाबाई की एक बड़ी विशेषता यह थी कि उसने अपने पति के सुख को ही अपना सुख समझ लिया था । वह पति की सुख-सुबिधा में ही अपनी सुख-सुविधा मानती और अनुभव करती थी । इसी प्रकार प्रभुदत्तजी भी विमलाबाई के सुख को अपना सुख समझते थे। दोनों मानों एकाकार हो गये थे इस प्रकार पति और पत्नी सांसारिक सुख का आस्वादन करते हुए आनन्द और प्रसन्नता के साथ समय यापन कर रहे थे। भारत वर्ष में दाम्पत्य जीवन की कल्पना बहुत उच्च श्रेणी की है । यहां के दाम्पत्य सम्बन्ध में न अधिकारों की छीना-झपटी है, न हकों की मांग है, न एक दूसरे से स्वार्थ साधनों की मनोकामना है। यहां त्याग की प्रधानता है। पति और पत्नी दोनों एक दूसरे के सामने अपने आपको निछावर कर देते हैं । दोनों एक दूसरे के परम सहायक बनते हैं । दोनों दोनों के आत्मीय बन जाते हैं । इस उदात्त भावना में कितना सुख है ! कितना माधुर्य है ! यह तो वही समझता है जिन्होंने इस प्रकार का जीवन व्यतीत किया हो दाम्पत्य सुख की दृष्टि से ही ऐसा जीवन प्रशस्त नहीं हैं, किन्तु जीवन के वास्तविक विकास की दृष्टि से भी वह अत्यन्त प्रशस्त है । इस पद्धति से व्यक्ति का 'अहम्' व्यापकता की ओर बढता हैं । धीरे धीरे वह दूसरों के सुख-दुःख को भी अपना सुख-दुःख समझने लगता हैं । उसमें 'सर्वभूतात्मभाव' का औदार्य प्रकट होने लगता हैं । इस प्रकार मनुष्य का पारिवारिक जीवन, प्राणीमात्र के प्रति सहानुभूति और समवेदना के सीखने का साधन बन जाता हैं । जो विचारशील इस प्रकार का जीवन व्यतीत करते है, वे अपने घर को ही विश्वप्रेम की पाठशाला बना लेते हैं । उनका जीवन 'सत्वेषुमैत्रीम्' अर्थात जीव मात्र के प्रति मैत्री भावना का कारण बन जाने से धन्य हो जाता हैं। कई लोग आज कल विभक्त कुटुम्ब प्रथा का समर्थन करते हैं । उनका कहना है कि बाप बेटे का और भाई-भाई का सम्मिलित रूप से एक परिवार में रहना अच्छा नहीं। सबको अलग-अलग होकर ही रहना चाहिए । किन्तु इस विचार में बडी संकोर्णता, स्वार्थ परायणता, और तुच्छता भरो हैं । जो व्यक्ति अपने पिता को अपनों नहीं समझसकता, भाई को अपना नहीं समझसकता, उनके सुख-दुःख को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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