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________________ १२४ आकर बस गये । तभी इनका परिचय वैरोगीसाधु के रूप में प्रत्यक्ष आया । धर्मदासजी के वंश में ही चरितनायकजी का जन्म हुआ था । इनका वंश परिचय इस प्रकार है-* धर्मदासजी बालकदासजी प्रेमदासजी. जुगलदासजी माहनदासबी किसनदासजी. रूपदासजी. पूज्य श्री की वंश परम्परा अन्य रूप से प्राप्य है... ... (पितामह) दादा-श्री परसरामजी । दादी-श्रीमती चतुरबाई । पिता-कनीरामजी । माता-नन्दुबाई श्रीमान् कनीरामजी के तीन पुत्र और एक पुत्री थी । सबसे बड़े पुत्र रतनदासजी थे उसके बाद द्वितीय पुत्र हमारे चरितनायकजी श्री घासीदासजी थे । तृतीय पुत्र का नाम धनदासजी था । धनदासजी का वि० सं. १९५६ के दुष्काल में स्वर्गवास हो गया । माता, पिता एवं बडे भ्राता श्री रतनदासजी का भी उसी साल में स्वर्गवास हो गया । पूज्य श्री की बहन का नाम वरजूबाई था घासीदासजी को सभी लोग प्यार से गोट्या के उपनाम से बोलते थे। वरजवाई के पति का नाम खीमदासजी था । खीमदासजी के दो पुत्र थे । एक का नाम जेतरामजी और दसरे का नाम रूपदासजी था । जेतरामजी के ६ पुत्र हुए । उनमें सब से बडे लड़के का नाम गणेशदासजी हैं । इनकी आयु इस समय ५० वर्ष की है । ये मेवाड के अन्तर्गत कोयला पो० उमरवास में रहते हैं । रूपदासजी सन्यासी हुए । संन्यासी बनने के बाद इनका नाम अवधविहारी पडा । अवधविहारीजी अभी मौजूद हैं। हरिदासजी भगवानदासजी जीवनदासजी, नन्दरामजी परसरामजी (धर्म पत्नी का नाम-चतुरबाई) भेरुदासजी-प्रभुदत्तजी, (कनीरामजी) श्री प्रभुदत्तजी का जन्म वि. सं. १९२३ में हुआ था । इनकी देवमुरारी गोत थी। श्री प्रभुदत्तजी का विवाह चार भुजाजी के पास रूपजी गांव के अग्रावत गोत में विमलाबाई (नन्दूबाई) के साथ हुआ था । इनके पास खेती कआं आदि जमीन जायदात अच्छी थी। ये सभी तरह से सुखी थे । ये रामानुज संप्रदाय को मानने वाले थे । अपनी संप्रदाय के नियमानुसार सेवा पूजा में आप सतत निरत रहते थे । गांव में आपका सर्वत्र मान था । हृदय के अत्यन्त सरल थे । दूसरों की भलाई के लिए सदैव तत्पर रहते थे । आप न्याय-नीति पूर्वक अर्थोपार्जन करते थे । नीति पूर्ण व्यवहार एवं प्रामाणिकता के कारण जन साधारण में आपकी अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त थी । आपकी पत्नी का नाम था विमलाबाई (नन्दूबाई) विमलाबाई अपने नाम के अनुरूप ही विमल हृदया थी । पवित्र आचार विचार तथा पातिव्रत्य धमे की वह मंगलमूर्ति थी। उसका जीवन एकाँगी नहीं था । धार्मिकज्ञान तथा चारित्र के विकास में यह जितनी उची उठी थी उतनी ही सांसारिक व्यवहार को निभाहने में रुचि लेती थी । यहां तक की वह अनेक बार अपने पतिकी सांसारिक कठिन समस्याओ को अपनी राय देकर सुलझा इस प्रकार अपने पति के अन्तर्मुख और बाह्यजीवन के साथ पूर्ण रूप से एकाकार होकर विमलाबाई ने अर्धागिनी शब्द को सार्थक किया था । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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