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मेवाड का भौगोलिक परिचयः
इस देश किं सीमा पहले अलग अलग ढंग से गिनी जाती थीं । पूर्व में भेलसा और चंदेरी दक्षिण में रेवाकांठा और महिकांठा पश्चिम में पालन पुर और मण्डोवर, उत्तर में बयाना, पूर्वोत्तर में रणथंभोर और ग्वालियर तक । ये सिमाएँ देशकाल और परिस्थिति के बदलते समय चक्रके साथ बदली पर मेवाडी जीवन की छाप आज भी उन क्षेत्रों पर है ! राजस्थान का कोई भी भूभाग हो, मारवाड ढूंढाड, हाडौत, बागड, या मेवात ये सभी देश मेवाडी मिट्टी से प्रभावित हैं इस देश के प्रहरी अर्वली (आडावला) पहाड की श्रेणियाँ अजमेर और मेवाडे में होती हुई दिवेर के निकट मेवाड में प्रवेश करती है । ये पर्वतश्रेणियां राज्य के वायव्य कोन से लगाकर सारे पश्चिमी तथा दक्षिणी हिस्से में फैल गई है । उत्तरमें खारी नदी से लगाकर चितौड से कुछ दक्षिण तक और चित्तोड से देबारी तक समान भूमि है । दुसरी पर्वत श्रेणी राज्य के ईशान कोण में देवकी के पास से शुरू होकर भीलवाडे तक चली गई । तीसरी पर्वतश्रेणी देवली के पाससे निकलकर सज्य के पूर्वी हिस्से में जहाजपुर मांडलगढ बिजोल्या भैसरोडगढ़ और मेनाल आदि प्रदेश में होती हुई चितोड से दक्षिण तक जा पहुँची है । देबारी से लगाकर राज्य का सारा पश्चिमी हिस्सा और दक्षिणी हिस्सा पहाडियों से भरा हुआ है मेवाड की पहाडियां बहुधा घने जंगलों से भरी हुई हैं । यहां जल की बहुतायत है ।
इस राज्य के पूर्वी विभाग में उपजाऊ समतल प्रदेश है परन्तु दक्षिणी और पश्चिमी विभाग में घने जंगलों से भरी हुई रमणीय पहाडियां आगई है । जिनके बीच में जगह जगह खेती के योग्य भूमि भी है। दक्षिण में डूगरपुर की सीमा से लगाकर पश्चिम में सिरोही की सीमातक सारा प्रदेश पहाडीयों होने से 'मगरा कहलाता है । जहाँ अधिकतर भील आदि जंगली लोगों की बस्ती है । पर्वत श्रेणी में होकर निक. लनेवाले तंग रास्तों को यहाँ नाल कहते हैं । इस राज्य में सालभर बहने वाली एक भी नदी नही हैं। मेवाड झीलों का प्रेदेश है । जयसमुद्र, राजसमुद्र, उदयसागर, पिछोला सरुपसागर भोपालसागर, फते सागर आदि कई छोटी बड़ी झीलें इस प्रदेश के सौन्दर्य की अभिवृद्धि करती हैं। फतहसागर बाँधपर आनेवाली घुमावदार सडक की एक तरफ सघन वृक्षों से अच्छादित सुन्दर पहाडियां दूसरी ओर दूर तक सरोवर का जल और संध्या के समय अस्तंगत सूर्य की रक्त किरणों का जल में प्रतिबिम्ब आदि दृश्य दर्शक के हृदय में आनन्द की लहर उत्पन्न करते हैं ।। वंश परिचयः
यही मेवाड हमारे चरितनाकजी की जन्म भूमि है । इसी भूमि के अन्तर्गत वैष्णवों का प्रसिद्धतीर्थधाम कांकरोली के समीप. राजसमुद्र के उत्तर में आठमील पर 'बनौल' नामका सुन्दर एक छोटा सा गांव है यह गाँव छोटी-छोटी पहाडियों के बीच बसा हुआ हैं । यहाँ की भूमि उपजाऊ कम और कंकरीली अधिक है । इस गाँव के समीप गढी नामका प्राचीन स्थल है । यहाँ जैनों के कुछ घर है किन्तु अधिक तर बस्ती वैष्णवों की है। यहाँ 'वैरागी साधु' नामकी जाति के चार पाँच घर थे । ये लोग मन्दिर पूजा व खेती का काम करते हैं । 'वैरागी साधु' जाति का केवल नाम है. किन्तु ये साधु नही गृहस्थ ही है ये 'वैरागीसाधु' पहले ब्राह्मण जाति में थे।
'बनोल' गाँव में 'वैरागीसाधु' जाति के घर वि. सं. १४४७ में बसे हैं । यहाँ आकर बसनेवालों में सर्वप्रथम धर्मदासजी का नाम आता है । ये पहले चित्तोड रहते थे । और सनावत जाति के ब्राह्मण थे । धर्मदासजी नागासंप्रदाय में दिक्षित हुए और महाराणा रायमलजी के शासन काल में यहाँ बनोल
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