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________________ भव्य इतिहास में जैन जाति का कितना बड़ा महत्व हैं । इनके अतिरिक्त मेहताजालसी वीरआशाशाह संघवी दयालदास मेहताअगरचन्थजी सोमचन्दजी गान्धी सेनापति मेहता मालदासजी जोरावरमलजी बाफना मेहतागोकलचन्दजी श्रीमान केशरीसिंहजीकोठारी छगनलालजीकोठारी मेहतापन्नालालजी फतेलालजी भोपाल सिंहजीजी जगन्नाथसिंहजो कोठारीबलवन्तसिंहजी नगर सेठ श्री नन्दलालजी बाकना आदि बडे राजनीतिज्ञ वीर और दूरदर्शी महामुत्सदि जैनों ने अपने कुशल संचालन में मेवाड राज्य को खूब समृद्ध किया । इस तरह मेवाड राज्य के इतिहास में जैन वीरौं के द्वारा किये गये राजनैतिक और सामाजिक आर्थिक और पारमार्थिक कृत्यों के द्वारा यह प्रमाणित हो जाता हैं कि जैनवीरों ने इस राज्य के निर्माण व रक्षण और समृद्धि में महत्वपूर्ण हिस्सा लिया हैं । इन वीरों ने जिस प्रकार अपनी बुद्धि का उपयोग देश के लिए किया उसी तरह वीर योद्धाऔं को तरह ये रणमैदान में भी उतरे और विजय प्राप्त की। इन वीरों ने यह सिद्ध कर दिया कि जैन जैसे अपनी बुद्धि बल से राज्य का संचालन कर सकते हैं । वैसे रणमैदान में भी वीरता पूर्वक झूझ भी सकते हैं ।। एक और मेवाड-वीर भूमि हैं तो दूसरी ओर त्याग भूमि भी है । देश की रक्षा के लिए यहाँ के वीरों ने अपने आप तो होम दिया इसी प्रकार मानवता के नाम पर पनपनेवाली अमानवीय वृत्ति के विरुद्ध झुंझनेवाले अनेक त्यागमूर्ति संन्त भी इसी मिट्टी में उत्पन्न हुए जिनकी साधना आज भी हमें गर्ग दर्शन कराती है सन्त संस्कृति के प्रभाव से समस्त मेवाडप्रदेश प्रभावित है। इसके गाँव गाँव में सन्त जीवन का सौरभ परिव्याप्त हैं । मेवाड प्रान्त के सन्तों की गौरवगाथा और उनकी कीर्ति कथा सुनकर आज भी किस भद्र भावनावाले व्यक्ति का मस्तक श्रद्धानत नहीं हो जाता है ? यह भूमि संतो की भमि है। सन्त भक्तों की भूमि है । इस भूमि ने अनेक दिव्य भव्य एवं तप त्याग की प्रत्यक्ष मति सन्तजनों को जन्म देकर अपनी गरिमा में अभिवृद्धि की हैं । मेवाड के सन्तों ने केवल जनता को धार्मिक बनाने का ही प्रयत्न नहीं किया बल्कि राजस्थानीभाषा, ज्ञान, साहित्य, चित्रकला, स्थापत्य की अभिवृद्धि में अपना महत्त्व पूर्ण योगदान भी दिया है। जैनधर्म का प्राचीन स्थल: मेवाड यह जैन धर्म का एक प्राचीनतम केन्द्र रहा हैं । जैन धर्म के अन्तिम तीर्थकर भगवान श्री महावीर स्वामी के निर्वाण के ८४ वर्ष के बाद ही मेवाड में मध्यमिका नगरी में जैन धर्म का एक महान केन्द्र होने की सूचना देनेवाला शिलालेख्न अजमेर से २६ मील दक्षिण पूर्व में स्थित वरली गाँव में प्राप्त हुआ हैं । मध्यमिका नगरी के खण्डहर आज भी मेवाड चित्तोडगढ़ से आठ मील उत्तर में बेडच नदी के किनारे नगरी नामक गांव और उसके आस पास फैले हुए हैं । वहाँ से मिलनेवाले कई सांबे के सिक्कों पर विक्रम संवत के पूर्व की तीसरी शताब्दी के आसपास की ब्राह्मी लिपि में "मज्झिमिकाय शिविजनपदस्य लेख है । इससे अनुमान होता है कि मेद-पाट-मेवाड़ का प्राचीन नाम 'शिवि' जनपद था। इस प्रदेश में 'मेव' या 'मेर' जाति का ही अधिक निवास होने से और उनका ही इस प्रदेश पर अनुशासन होने से यह देश मेद-पाठ मेवाड के नाम से प्रसिद्ध हुआ इस प्रदेश का दूसरा प्राचीन नाम 'प्राग्वाट' भी मिलता हैं । ___संस्कृत शिला लेखों में तथा पुस्तकों में पोरवाड महाजनों के लिए "प्राग्वाट" नाम का प्रयोग मिलता हैं और वे लोग अपना निवास मेवाड के 'पुर' कस्बे से बतलाते हैं जिससे संभव है कि प्राग्वाट देश के नाम पर से वे अपने को प्राग्वाटवंशी कहते रहें हो । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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