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विहार होता रहा है वहाँ अहिंसा के मौलिक तत्त्व फेले है । स्वभावतः जन हृदय में सुकुमार भावनाओं ने घर बनाया है । सौम्य समत्व और नैतिकता ने अपनी निष्टा द्वारा धर्म को आत्मा का वास्तविक अंग मान लिया हैं । यह निश्चित है कि जब जब देश का नैतिक धरातल गिरा है और अकर्मण्यता का प्रभाव बढा है, तव तब जैन सन्तों ने अपनी अनुभव युक्त वाणी से देश को ऊपर उठाया है और नैतिक चरित्र की सृष्टि कर जनोन्नयन का पथ उज्जवल किया है । यह उनके संयम मय जीवन का ही प्रबल प्रताप हैं ।
जैन संस्कृति का मेवाड पर गहरा असर प्राचीन काल से लेकर आज तक अक्षुण्ण रूप से चला आ रहा है। जब हम राजस्थान के इतिहास का अध्ययन करते हैं तो यह स्पस्ट झलक उठता है कि राजस्थान के शासकों के महान सहयोंगी और परामर्शदाता जैन जाति के महापुरूष ही रहे हैं । कर्नल जेम्सटाड ने लिखा है कि मेवाड के राणा वंश गिल्हौतवंश के आदि पुरूष जैन धर्म के अनुयायि थे । आज भी इस वंश में जैन धर्म को बहुत उंचा सन्मान प्राप्त है । कारण जैन धर्म राजा प्रजा का परम रक्षक हैं ।
राजस्थान के निर्माण में जैनजाति का अग्रगण्य सहयोग रहा हैं । आरंभ से ही इस दूरदर्शी राज नीतिज्ञ वीर योद्धा देश भक्त महान साहित्यकारों न्यागी मुनियों के द्वारा इसके शासन तन्त्र के संचालन में एवं समाज के नैतिक पुनरुस्थान में महत्व पूर्ण भाग लिया है। भले ही राजस्थान में जैन जाति का कोई पुरुष राजा न हुआ हो परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि इसने कई राजाओं को बना दिया है । राजस्थान में जैन जाति राजा के रूप में न रहकर भी राजनिर्माता के रुप में महत्व प्राप्त करती आई है
दृष्टि से यह देखा जाय कि जैन वीरों ने राजस्थान का निर्माण और संरक्षण किया है तो कोई भी अत्युक्ति नहीं है !
__ उदयपुर, जोधपुर, बीकानेर सिरोही किशनगढ; आदि रयासतों के इतिहास जनों द्वारा प्रदर्शित दूर दर्शिता राजनीतिज्ञता और वीरता से भरी हुई गाथाओं से ओत प्रोत है। इन नररत्नों ने एसे विकट समय में जबकि युद्ध और अशांति का दौर दौरा था क्षण क्षण में बडे बडे सम्राज्यों ओर सम्राटों का परिवर्तन होता था, राजाओं के अस्तित्व का कोई ठिकाना नहीं था । क्ट राजनीति के पांसे फैके जाते थे और जब पुस्तक के पन्नो की तरह राज्य बदलते जाते थे-इन राज्यों की नैय्या को कुशलता पूर्वक पार पहुंचाया, इस जाति के वीरों ने अपने देश के प्रति जिस भक्ति का परिचय दिया वह इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षर से अंकित है । अपने देश और स्वामी के प्रति वफादार रहने वाले और उनके लिए सर्वस्व अर्पण करने वाले व्यक्तियों की नामावली में सर्व प्रथम नाम 'भामाशाह' का आता हैं । इस जैन रत्न ने महाराणा प्रताप का एसे समय में जब कि वे निराश होकर जन्मभूमि मेवाड को छोड देने की तैयारी में थे । अपनी समस्त सम्पति को गाडियों में भरकर वे मेवाडाधीश महाराना प्रताप के समीप पहुचे और प्रणाम कर बोले
चित छोडो संतापलिछमी अर्पण आपरे । पतरहसी परताप पगपूज्या प्रथीनाथरे ॥ .- है ? मेवाड के रत्न ? सिसोदियाकुलदिवाकर यह अथाघ लक्ष्मी किस काम आयगी । आप मातृभूमि को छोड़कर न जायें । मेरी सारी सम्पति आप के चरणों में समर्पित है । वीर महाराणा प्रताप दानवीर भामाशाह के इस महान् त्याग से गद् गद् हो उठे । वे कुछ भी नहीं बोल सके महाराणा का क्षात्र तेज पुनः चमक उठा । उन्होंने जैनमंत्री की विपुल सम्पति की सहायता से मेवाड के गौरव को रक्षा की । इस तरह की अनेक घटनाए इतिहास के पृष्ठों पर उल्लिखित हैं जिनसे प्रतीत होता है कि राजस्थान के
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