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________________ १२१ व्याख्यानों से प्रभावित होकर कई देशी रियासतों के रजवाडों ने अगते पालने के पट्टे भी करदिये। जावरा में सर्प के उपसर्ग की बात आपके धैर्य की सदैव गुणगाथा गाती रहेगी । ___बलुंदा से विहार कर जब आप सं० १९७७ में अषाढ वदी १४ को जेतारण पधारे वहाँ दो दिन के बाद व्याख्यान के समय एकाएक आपकी आंखों की ज्योती चली गई । वेदना बढती गई पर आचार्य श्री धैर्य और शान्ति के साथ सहन करते गये । शिष्यों को पास बुलाकर अन्तिम शब्दों में आपने शुद्ध संयम पालने के लिए तथा एकता और अनुशासन के साथ रहने की प्रेरणा दी । __अन्त में आषाढ सुदी ३ सं. १९७७ को प्रातः काल अन्त समय में शूर वीर की तरह बडे समभाव से धैर्य और शान्ति के साथ वेदना सहन करते हुए आलोयणा संथारा के साथ सिद्ध भगवान का स्मरण करते हए स्वर्ग वासी हो गये । देश में सर्वत्र शोक छां गया । दूर दूर से श्रावक श्राविकाएँ आपके अन्तिम दर्शन के लिए बड़ी संख्या में जैतारण में एकत्रित हुए । अंतिम पालखी निकाली गई । कवि और लेखकों ने बडे मार्मिक शब्दों में अपनी श्रद्धाजलियां प्रेशित की । सो साधु और एक माधू वाले माधब मुनि महाराज ने भी अपनी भव्य श्रद्धांजलि में कहा था “जगतारण जयतारण स्वर्ग सिधायो न" आदि--आपके पट्टधर महान सन्त श्रीजवाहिर लालजी म. थे पूज्य आचार्य श्रीजवाहर लालजी महराज पूज्य श्री श्रीलाल जी महराज के पाटपर पूज्य श्री जवाहरलाल जी महराज आचार्य के रूप में बिराजमान हुए। आप मालवा प्रान्तमें झाबुआ रियासत के अन्तर्गत थांदला शहर के निवासी थे। आपके पिता कवाड गोत्रीय सेठ श्रीजीवराजजी थे। आपकी माता का नाम नाथीबाई था । आपका जन्म सं. १९३२ के कार्तिक शुक्ला द्वितीया वि. सं. १९४७ को मुनि श्री बडे घासीलालजी महराज के पास क्षा धारण की । आप मगनलालजी महराज के शिष्य बने दीक्षित बनने के बाद आपने अपने गुरु श्री ठजी महराज से शास्त्रों का अध्ययन आरंभ किया । आप की बुद्धि अत्यंत तीक्ष्ण थी अतः आपने अल्प समय में ही बहुत से शास्त्र याद कर लिये थे । आपकी बुद्धि, एकाग्रता और सेवा शीलता आदि गुणों को देखकर सभी साधु आप पर प्रसन्न रहते थे । मुनि श्री मगनलालजी महराज तो यह सब गण देखकर समझ चके थे कि आप भविष्य में समाज में सूर्य के भांति चमकेगें । अतः वे बडी लगन के साथ आप को पढाते और संयम में उत्तरोत्तर वृद्धि के लिए उपदेश देते रहते । आप जब पटलावद पहचे तो उस समय आपके गुरु श्री मगनलालजी महाराज का स्वर्गवास हो गया । गुरु के स्वर्गवास से आपको अपार दुःख हुआ । गुरु विरह के कारण वे दिन रात शोक और चिंता से आपका चित्त विक्षिप्त हो गया । इस अवसर पर तपस्वी श्री मोतीलालजी महाराज ने आपकी बडी सेवा की । अंत में डॉक्टरों के इलाज से उनकी मानसिक अस्वस्थता मिट गई और पूर्ववत् स्वस्य हो गये । स्वस्थ होने के बाद आपने अपना अध्ययन शुरु कर दिया। थोडे ही समय में जैनशास्त्रो को अध्ययन करके जैनशास्त्रों के हार्द को आपने समझ लिया । साथ ही संस्कृत, प्राकृत का भी खूब अच्छा अध्ययन कर लिया । आपकी योग्यता व प्रभाव को देखकर पूज्य श्री श्रीलालजी महराज ने वि. सं. १९७५ के चैत्र कृष्णा नवमी को आपको अपने संप्रदाय का युवाचार्य बनाये । जयतारण में पूज्य श्री श्रीलालजी महाराज के स्वर्गवास के बाद इस संप्रदाय के चतुर्विध संघ ने आपको आचार्य पद से विभूषित किये । आचार्य बनने के बाद अपने सतत प्रयत्न शील रहने लगे। आपने समस्त जैन अजैन संघ में अच्छाख्यात प्राप्त की । लोक मान्य तिलक, महात्मागान्धी, सरदार वल्लभभाई पटेल, पंडित मदनमोहन मालवीया और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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