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________________ २२० राज के समीप दीक्षा धारण कर ली ! आप की स्मरनशक्ति अदभुत थी। आपने अल्प समय में संपूर्ण शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। आप को प्रवचन प्रतिभा अतिशय प्रभावशाली थी। आप जहाँ भी जाते आप के प्रवचनों को सुनने के लिए जैन अजैन बड़ी संख्या में उपस्थित होते थे । जो कोई भी साधु साध्वी श्रावक-या श्राविका आप का एक बार ही प्रवचन श्रवण कर लेता था, वह उसी बात को दूसरों को सुनाने के लिए तैयार हो जाता था । आप ने पंजाब की तरफ भी विहार किया था और अनेक जैन अजैनों को पवित्र उपदेशामृत पान कराकर सद्धर्म में स्थित किया था । श्रोता गण आप की बाणी को मंत्र मुग्ध होकर सुनते थे । पैर में असाता वेदनीक कर्म के उदय से ब्याधि होने के कारण अंतिम १७ वर्ष आप को रतलाम में विताने पडे । अंत में मुनि श्री चौथमलजी महाज को आपने आचार्य पद पर स्थापित कर सं. १९५४ के माघ शुक्ला दशमी के रोज रतलाम में समाधि पूर्वक स्वर्गवासी हुए । पूज्य श्री चौथमलजी महाराज पूज्य उदयसागरजी महाराज के पट्टधर आचार्य पूज्य श्री चौथमलजी महाराज का जन्म पाली (मारवाड) में हुआ था । १९०९ चैत्र शुक्ला १२ को दीक्षा ली आप अत्यन्त क्रियापात्र साधु थे आप वि. सं १९५७ में स्वर्ग वासी हुए । आप के पट्ट पर पूज्य श्री श्री लालजी महाराज बिराजे । पूज्य श्री श्रीलाल जी महाराज जिंदगी और मौत के बीच पनका रास्ता बनाने वाले श्री श्री लालजी बचपन से ही संसारी मायाजाल के प्रति अलिप्त भावना रखते थे । यही कारण था कि विवाह होजाने पर भी पत्नी मानकुँवरबाई को आपने नजर भर कर भी नहीं देखा अपितु जब वे एक बार दों पहर को कमरे में श्री लालजी दूसरे मंजील से पास की चाँदनी पर कूद गये । मालाचांदकुवर बाई पिता चुनिलालजी बम्ब तथा जन्म भूमि टोंक को छोडकर २० वर्ष की वय में संवत १९४५ में आप पूज्य श्री किसन लालजी महाराज के पास दीक्षा ग्रहण कर जैन साधु बन गये । संसारी पत्नी श्री मानकुवर बाई ने भी बाद में दीक्षा अंगीकार कर ली । बचपन में दीक्षा की आज्ञा न मिलने से आप को मुनिवेष धारण कर एक लम्बे समय तक विचरना पड़ा । इस प्रकार रामपुरा में आपने सं. १९४४ में चातुर्मास किया जहां शास्त्र अध्नयन के कार्य में सुश्रावक केशरीचन्दजी सुराणा का योग उपयोगी साबित हुआ । ब्रह्मचर्य पुरुषार्थ विनय आदि सद्गुणों से युक्त श्री श्रीलालजी म. ने थोडे ही समय में कई शास्त्र व थोकडे कण्ठस्थ कर लिये । ज्ञान बल के साथ ही साथ वक्तृत्वकला में निपुण आचार्य श्री निडरता के साथ व्याख्यान में श्रोताओं को जिनवाणी रूप अमृत पिलाते । चारित्र विशुद्धि पर आप अत्यधिक जोर देते थे । तथा आहार पानी लेने में उतनी ही सावधानी रखते थे। जितनी भाषा समिति में। आप की स्मरण शक्ति बहुत तेज थी। आप के अनेक सद्गुणो में निरहंकारवृत्ति परमसहिष्णुता, कर्तव्य पालन में सावधानी, परनिंदा परिहार आदि प्रमुख थे । तपश्चर्या आप बहुत करते थे। प्रत्येक चातुर्मास में २-३ माह की एकान्तर तपश्चर्या तथा प्रत्येक सास प्रायः तेला तथा चोला पचोला अठाई भो आपने कई की । तपश्चर्या में भी आप व्याख्यान फरमाते थे। आपने १३ उपवास का एक थोक भी किया था। गौचरी लेने भी आप प्रायः जाते रहते थे । __मुनिश्री श्रीलालजी महराज पहले तो बलदेवजी म० की नेश्राय में रहे पर आचार भिन्नता के कारण कोटा संप्रदाय से पूज्यश्री हुक्मीचन्दजी म. की संप्रदाय में सम्मलित हो वरदीचन्दजी महराज श्री की नेश्राय में रहे थे । ३२ वर्ष के संयमी जीवन में पूज्य श्री श्री लालजी म. ने कई उपसर्ग सहे। मालव, पंजाब मध्य प्रदेश राजस्थान सौराष्ट आदि प्रदेशों में स्थान स्थान पर भ्रमण कर लोगों को सदुपदेश दिया । आपके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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