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________________ एवं स्वयं सं. १६१३. मैं ज्येषु शुक्ला ६ सोमवार को पांच ५ दिन का अनशन कर ६३ वर्ष की आयुमें स्वर्गवासी हुए । इनके प्रभावसे गुजराती लोकागच्छ प्रसिद्ध हुआ ।। ६५ वै आचार्य तेजराजजी महाराज ६६ वे आचार्य कुँवरजी महाराज ६७ वें आचार्य हरजी ऋषि इन्होंने सं. १७८५ में क्रियोद्धार किया । इनके पाट पर आचार्य गोदाजी ऋषि प्रतिष्ठित हुए । पूज्य आचार्यश्री घासीलालजी महाराज की गुरु परम्परा पूज्य श्री हुकमीचन्दजी महाराज पूज्य श्री दौलतरामजी महाराज के पश्चात् श्री लालचन्द जी महाराज बडे प्रभाविक आचार्य हुए । उनके पार्ट पर परम प्रतापी पूज्य श्री हकमीचन्द जी महाराज बिराजे । पूज्य श्री हुकमी चन्दजी महाराज एक आचारनिष्ट विद्वान मुनि थे । आप का जन्म शेखाबटी के 'टोडा' नामक ग्राम में हुआ था । आप का गोत्रं चपलोत था । से. १८७९ के मार्गशीर्ष में आप ने बून्दी में पूज्य श्री लालचन्दजी महाराज के पास प्रबल वैराग्य भाव से दीक्षा ग्रहण की थी । ____ दीक्षा के बाद इक्कीस वर्ष तक आप ने बेले बेले की तपस्का की। घोर से घोर शोतकाल में भी आप एकही चादर का प्रयोग करते थे । सब प्रकार की मिठाई और तली हुइ चीजों का आप ने सदा के लिए त्याग कर दिया था । केवल १३ द्रव्य की ही छूट रखी थी। शेष सब प्रकार के द्रव्यों का आपने त्याग कर दिया था । प्रतिदिन दो हजार “नमोत्थुणं" द्वारा प्रभु को वन्दना करते थे । आप के अक्षर बडे सुन्दर थे। आप के द्वारा लिखित १९ सूत्रों की प्रतियां आज भी विद्यमान हैं। आप साध्वाचार के प्रति सदैव सजग रहते थे । इतने क्रियापात्र तपस्वी और विद्वान साधु होते हुए भी आप के मन में अभिमान लवलेश भी नही था । संवत् १९१७ में जावद ग्राम में वैशाख शुक्ला ५ मंगलवार के दिन संथारा कर पंडित मरण पूर्वक आपका स्वर्गवास हुआ। आपही के नाम से यह संप्रदाय चली। पूज्य श्री शिवलालजी महाराज पूज्य श्री हुकमी चन्दजी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् आपके स्थान पर पूज्य श्री शिवलाल जी महाराज आचार्य पद पर आसीन हुए । आप ने विक्रम सं. १८९१ में पू० हुकमीचन्दजी महाराज के समीप दीक्षा ग्रहण को । आपने तेतीस वर्ष तक निरन्तर एकान्तर उपवास किया । शास्त्र स्वाध्याय ही एक मात्र आप का व्यसन था । धर्म के मर्म का परमार्थ प्रतिपादन करने में तत्कालिन सन्त समाज में आप का प्रमुख स्थान था । वयोवृद्ध होने के कारण आप केवल मालवा मेवाड और मारवाड के क्षेत्रों में ही विहार कर सके थे। फिर भी आप की सम्प्रदाय में साधु समुदाय का खूब विकाश हओ सोलह वर्ष तक आचार्य पद पर रहकर वि. सं. १९३३ में पौष शुक्ला छठ को समाधि पूर्वक देहोत्सर्गकिया पूज्य श्री उदयसागरजी महाराज ___ इनका जन्म मारवाड के सुप्रसिद्ध नगर जोधपुर में ओसवाल सद्गृहस्थ सेठ नथमलजी की पतिः व्रता पत्नी जीबुबाई के उदर से वि. सं. १८७६ के पौष माह में हुआ । आपका विक्रम सं १९९१ में विवाह हुआ । बाल्यावस्था में विवाह होते हुए भी आप के हृदय में पूर्वजन्म संचित तीववैराग्य जागृत हुआ । माता पिता एवं पत्नी की आज्ञा नहीं मिलने के कारण आप स्वयं ही संयमो जीवन व्यतीत करने लगे ! करीब बारह वर्ष तक मुनिवेष में ही विचरते रहे । अन्त में आपके उत्कट त्याग और वैराग्य को देखकर माता पिता ने आप को दीक्षा की आज्ञा प्रदान कर दी । दीक्षा की आज्ञा मिलते ही वि. सं. १९७८ के चैत शुक्ला ११ के दिन पूज्य श्री शिवलालजी महाराज के शिष्य हर्षचन्द्रजी महा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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