________________
पूज्य श्री दौलतरामजी महाराज क्रियोंद्धारक श्री हरजीऋषि के छट्टे पट्टधर आचार्य है। इन्होंने पूज्य मयारामजी महाराज के समीप वि. सं. १८१४ में दीक्षा ग्रहण की। ये लींबडी संप्रदाय के आचार्य अजरामरजी स्वामी के समकालीन ये । पूज्य दौलतरामजी म. सा. पूज्य हुकमीचन्दजी महाराज के दादा गुरु थे । ये बडे समर्थ व आगम सिद्धान्स के परगामी विद्वान थे। संस्कृत प्राकृत भाषाओं के आप प्रकाण्ड पण्डित थे। आपकी विद्वत्ता उच्च आचार और असाधारण ज्ञान की प्रशंसा अजरामजी महाराज ने सुनी। पू० अजरामरजी महाराज भी कमविद्वान् नहीं थे। फिर भी आगमविषयक विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने के लिए पू० दौलतरामजी महाराज से अपनी इच्छा व्यक्त की। इस पर लींवडी संघ ने एक आदमी पु० दौलतरामजी महाराज की सेवामें प्रार्थना पत्र भेजा । आचार्य प्रवर श्री दौलतरामजी महाराज उस समय कोटाबून्दी में विराजते थे। उन्होंने इस विज्ञप्ति को सहर्ष स्वीकृत कर काठियावाड़की ओर विहार कर दिया । पूज्य श्री अपने शिष्य परिवार के साथ अहमदाबाद पधारे । लींबडी संघ का व्यक्ति पूज्य श्री को अहमदाबाद छोड़ उनके पधारने की सूचना देने लींवडी पहुँचा । व्यक्ति ने लोंबडी पहुँचकर पूज्य श्री के अहमदाबाद आने की सूचना दी । पूज्य श्री के आगमन के समाचार सुनकर लीन्बडी संघ को आनन्द का पार नहीं रहा । वधाई देनेवाले मनुष्य को लींबडी संघ ने १२५०) रुपये की थेली भेट की । पूज्य श्री दौलतरामजी महाराज लींबडी पधारे ।
आपके आगमन से जो संघ में हर्ष छा गया वह वर्णनातीत है । पूज्य श्री अजरामरजी स्वामी पूज्य श्री से आगम-सिद्धान्त का अध्ययन करने लगे । समकीतसार के कर्ता पं. मुनि श्री जेठमलजी महाराज उस समय पालनपुर विराजते थे वे भी सूत्र सिद्धान्त का अध्ययन करने के लिए लींबडी पधार गये। वे भी ज्ञान गोष्ठी का अपूर्व लाभ लेने लगे । पूज्य श्री अजरामजी महाराज कई वर्ष तक पूज्यश्री के साथ साथ विचरणकर ज्ञानाभ्यास करते रहें ! जयपुर का चातुर्मास भी श्री अजरामजी म. ने पूज्य श्री के साथ ही में किया । जब ज्ञानाभ्यास पूरा हुआ । तब कहा जाता है कि पूज्य श्री अजरामजी महाराज सा. ने लींबडी का विशालज्ञान भण्डार पूज्य श्री दौलतरामजी म. सा. के लिए खोल दिया और कहा कि-"यह ज्ञान भण्डार आप ही का है आप जो चाहे वह ग्रन्थ या शास्त्र इस भण्डार में से ले सकते हैं । इस पर पूज्य श्री ने कहा आप लोगों का प्रेम ही चाहिए । मुझे इस परिग्रह की आवश्यकता नहीं । उन्होंने एक भी ग्रन्थ उन में से ग्रहण नहीं किया । यह थी उनकी अपरिग्रहवृत्ति । आप अपने शिष्य लालचन्द्रजी महाराज को अपना अनुगामी बनाकर एवं अन्तिम समय में अनशन ग्रहण कर स्वर्गवासी हु ६३ वें आचार्यश्री रूपजी स्वामी ____ अणहिलपुर पाटन निवासी ओसवाल वेद गोत्रीय । पिता देवजी माता मिरधाई । जन्म सं. १५४३, स्वयमेव दीक्षा सं. १५६८ माघ शुक्ला पूर्णिमा । इन्होने पाटनगच्छ गुजराती लोंकागच्छ की स्थापना की । इस बात का लोंकागच्छ की बडे पक्ष की पट्टावली में विशेष उल्लेख है कि रूपा शाह ने मुनिवरों के दर्शनार्थ संघ निकाला था उस समय सरवाजी ऋषि का अहमदाबाद में व्याख्यान सुनकर प्रव्रजीत हुए और वह भी ५०० व्यक्तियों के साथ । आचार्य रूपजी स्वामी ने सं. १५७८ में जीवराजजी को संयम देकर स्वपद पर स्थापित किया । सात वर्ष तक गुरु शिष्य साथमें विचरते रहे । ६४ वें आचार्य जीवराजजी महाराज
. आचार्य रूपजी महाराज ने आपको सं० १५७८ में स्वपद पर स्थापित किया । ये सूरत के देश. लहरा गोत्रीय तेजल तेजपाल की पत्नी कपूराबाई के पुत्र थे । जन्म सं. १५५०, दीक्षा सं. १५६८ माघ शुक्ला २ गुरुवार, संवत १६१२ वैशाख सुदि ६ को बडे वरसिंघजी को पद पर स्थापित किया।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org