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________________ ११६ प्रतिनिधि बनकर ज्ञान दिवाकर धर्मप्राण लोकाशाह ने अपनी समस्त शक्ति को संचित कर मिथ्यात्व और आडम्बर के अंधकार के विरुद्धसिंह गर्जना की । अल्प समय में ही उन्हें अद्भुत सफलता मिली । लाखों लोग उनके अनुयाई बन गये। कुछ व्यक्ति लोकाशाह की यह धर्मक्रांति देखकर घबरा गये और कहने लगे कि “लोकाशाह नामके एक लहिये ने अहमदाबाद में शासन विरोध में विद्रोह खडा कर दिया है।" इस प्रकार उनके विरोध में उत्सू त्र पुरूपणा और धर्म भ्रष्टता के आक्षेप किये जाने लगे। ___इस प्रकार की बातों को अनहिलपुर पाटनवाले श्रावक लखमशी भाई ने सुनीं। लखमशी भाई उस समय के प्रतिष्ठित, सत्ता-संपन्न तथा साधन संपन्न श्रावक थे। लोकाशाह को सुधारने के विचार से वे अहमदाबाद में आये। उन्होंने लोकाशाह के साथ गंभीरता पूर्वक बातचीत की। मूर्ति पूजा एवं साध्वाचार के विषय में अनेक प्रश्न किये। उनके प्रश्नों के उत्तर में लोकाशाह ने कहा--- "जैनागमों में मूर्तिपूजा के संबंध में कही भी विधान नहीं है। ग्रन्थों और टीकाओं की अपेक्षा हम आगमों को विशेष विश्वसनीय मानते हैं। जो टीका अथवा टिप्पणी शास्त्रों के मूलभूत हेतु के अनुकूल हो वही मान्य की जा सकती है। किसी भी मूल आगम में मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रतिमा की पूजा का उल्लेख नहीं है । दान, शील तप और भावना अथवा ज्ञान, दर्शन चारित्र और तप आदि धार्मिक अनुष्ठानोंमें मूर्ति पूजा अंतनिहित नहीं हो सकती।" जो लखमशी भाई लोंकाशाह को समझाने के लिए आये थे, वे खुद समझ गये। लोकाशाह की निर्भीकता और सत्य प्रियता ने उनके हृदय को प्रभावित कर दिया और वे लोकाशाह के अनुयायी बन गये। ___एक समय अरहट्टबाडा, सिरोही, पाटण और सूरत इस प्रकार चार शहरों के संघ यात्रा के लिए निकले । वे अहमदाबाद आये। उस समय वर्षा की अधिकता के कारण उनको अहमदाबाद में ही रुक जांना पडा। इसलिए चारों संघों के संघपति नागजी, दलीचंदजी मोतीचंदजी और शंभूजी को श्री लोकाशाह से विचार विमर्श करने का अवसर मिला । लोकाशाह के उपदेश से उनके जीवन वीतराग परमात्मा के प्रति गहरी श्रद्धा का उन चारों संघों पर गहरा असर पडा । इस गहरे प्रभाव का यह परिणाम हुआ कि उनमें से पैतालीस श्रावक लोकशाह की परूपणा के अनुसार मुनि बनने के लिए तैयार हो गये। इसी समय ज्ञानजीमुनि हैदराबाद की तरफ विहार कर रहे थे । उनको लोकाशाह ने बुलाया और वैशाख शुक्ला ३ सं. १५२७ में उन पैतालीस व्यक्तियों को ज्ञानजी मुनि द्वारा दीक्षा दिलवाई। दीक्षा अंगीकार करने के बाद उन महापुरुषों ने अपने उपकारी पुरुष के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए अपने गच्छ का नाम लोंकागच्छ रखा । और अपने आचार-विचार और नियम लोकाशाह के उपदेश के अनुसार बनाये । इन ४५ महापुरुषों द्वारा आरब्ध “लोंकागच्छ” उत्तरोत्तर प्रगति पथ की ओर प्रयाण करने लगा। इनके शुद्ध आचार और विचार से प्रभावित होकर अनुयाई वर्ग में केवल श्रावक श्राविकाओं की संख्या ही नहीं बढी परंतु साधुओं की संख्या भी उत्तरोत्तर बढने लगी। लोकाशाह अब तक तो अपने पास आनेवालों को ही समझाते और उपदेश देते थे। परन्तु उन्हें अब विचार आया कि क्रियोद्धार के लिए सार्वजनिक रूप से उपदेश करना और अपने विचार जनता के समक्ष सक्रीय रूप से उपस्थित करना परम आवश्यक है। इसी उद्देश्य से उन्होंने वैशाख शुक्ला ३ संवत १५२९ में सार्वजनिक उपदेश देना आरंभ कर दिया । ये अपनी बुलंद आवाज से शास्त्रोक्त आचार का प्रतिपादन करने लगे। उस समय यतियों द्वारा उन्हें पथभ्रष्ट करने के लिए अनेक षड्यंत्र रचे गये, उन्हें अनेक यातनाएं पहुँचाई गई पर वे अपने मार्ग से किंचित्मात्र भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने अपने दृढ संकल्प और अद्भूत आत्मबल से उन सब संकटों पर विजय प्राप्त की। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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