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पवित्र पतिपरायणा भार्या गंगाबाई की कूख से विक्रम संवत् १४७२ कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को शुक्रवार ता. १८-७-१४१५ के दिन हुआ था ।
लोकाशाह का मन तो प्रारंभ से ही वैराग्यमय था, किन्तु माता-पिता के विशेष आग्रह के कारण उन्होंने संवत् १४८७ में सिरोही के सुप्रसिद्ध शाह ओधवजी की विचक्षण तथा विदुषी पुत्री सुदर्शना के साथ विवाह किया । विवाह के तीन वर्ष बाद उन्हें पूर्ण चन्द्र नामका एक पुत्र रत्न प्राप्त हुआ, इनके तेईसवें वर्ष की अवस्था में माता का एवं चौवीसवें वर्ष की अवस्था में पिता का देहावसान हो गया ।
सिरोही और चन्द्रावती इन दोनों राज्यों के वीच में युद्धजन्य-स्थिति के कारण अराजकता और व्यापारिक अव्यवस्था प्रसारित हो जाने से वे अहमदावाद में आगये और वहाँ जवाहिरात का व्यापार करने लगे । अल्प समय में ही आपने जवाहिरात के व्यापार में अच्छी प्रगति एवं ख्याति प्राप्त करली ।
तत्कालीन अहमदावाद के बादशाह मुहम्मद उनकी बुद्धि व चातुर्य से अत्यन्त प्रभावित हुए और लोकाशाह को अपना खजांची बना लिया । एक समय मुहम्मद शाह के पुत्र कुतुबशाह ने अपने पिता को मतभेद होने के कारण विष देकर मरवा डाला । संसार की उस प्रकार की विचित्रस्थिति देखकर लोकाशाह का हृदय कांप उठा । संसार से विरक्त होने के कार। उन्होंने राज्य की नौकरी छोड़ दी।
श्रीमान् लोकाशाह प्रारंभ से ही तत्त्व शोधक थे । जैन धर्म एवं तत्त्व का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त करने के
से उन्होंने जैन आगमों को एवं अन्य तत्त्वज्ञान सम्बन्धी ग्रन्थों को पढना शुरू किया । ज्यों ज्यों उनका अध्ययन बढता गया त्यों त्यों उनके ज्ञान में परिपक्कता आने लगी । इन्होंने अल्प समय में ही जैन धर्म का गहराई के साथ अध्ययन कर लिया । इनके अक्षर अत्यन्त सुन्दर थे । ये यत्तियों जीर्ण आगम लेते और अपने सुन्दर अक्षरों में उसको प्रतिलिपि कर उन्हें बापस कर देते । जैसे जैसे ये प्रतिलिपि करते गये वैसे वैसे वे आगमों के अर्थ की गहराई में उतरने लगे।
एक समय ज्ञानजी यति इनके यहां आहार के लिये आये । इन्होंने लोकाशाह के सुन्दर अक्षर शुद्धता पूर्वक लेखन शैली देखकर बड़े प्रभावित हुए और उन्होंने अपने पास के शास्त्रों की जो जीर्णप्राय अवस्था में प्रतियाँ थों उनकी नकल करने के लिये कहा । लोकाशाह तो अधिक से अधिक आगमों का अध्ययन करना चाहते ही थे उन्हें ज्ञानजी यति का सुझाव अच्छा लगा । उन्हों ने श्रुत सेवा का यह पुनित कार्य तत्काल स्वीकार कर लिया । अब ये अपने लिए एवं ज्ञानजी यति के लिये आगमों की सुन्दर प्रतिलिपियां तैयार करने लगे। ज्यों ज्यों वे शास्त्रों की नकले करते गये त्यों त्यों शास्त्रों की गहन बात
और भगवान की प्ररूपणाओं का रहस्य भी समझते गये । उनके नेत्र खुल गये । संघ और समाज में बढती हुई शिथिलता और आगमों के अनुसार आचरण का अभाव उन्हें दृष्टिगोचर होने लगा ।
जब वे चैत्यवासियों के शिथिलाचार और अपरिग्रही निर्ग्रन्थों के असिघारा के समान प्रखर संयम का तुलनात्मक विचार करते तब उनके मनमें अत्यन्त क्षोभ होता था । मन्दिरों मठों और प्रतिमागृहों को आगम की कसौटी पर कसने पर उन्हें मोक्ष मार्ग में कहीं पर भी प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा का विधान नहीं मिला । शास्त्रों का विशुद्धज्ञान होने से अपने समाज की अंधपरंपरा के प्रति उन्हें ग्लानि हुई । शुद्ध जैनागमों के प्रति उनमें अडिग श्रद्धा का आविर्भाव हुआ। उन्होंने दृढता पूर्वक घोषित किया कि शास्त्रों में बताया हुआ निर्ग्रन्थ-धर्म आजके सुखाभिलाषी और संप्रदायवाद को पोषण करने वाले कलुषित हाथों में जाकर कलंक को कालिमा से विकृत हो गया है। मोक्ष को सिद्धि के लिये तप, त्याग, संयम और साधना के द्वारा आत्म शुद्धि की आवश्यकता है । अपने इस दृढ निश्चय के आधार पर उन्होंने शुद्ध शास्त्रीय उपदेश देना आरंभ किया। भगवान महावीर के उपदेशों के रहस्य को समझकर उनके सच्चे
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