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महासेन
५४ ,
४६ आचार्यश्री रामऋषि ,
५५ आचार्यश्री महासूरसेन । स्वामी पद्मऋषि , हरिस्वामी ,
गजसेन कुशलदत्त "
चयराज उवनीऋषि
मिश्रसेन जयसेन
बिजयसिंह विजयसेन
शिवराजर्षि देवसेन
लालजी ऋषि सूरसेन
ज्ञानजीऋषि धर्मप्राण लॊकाशाह
भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् जैसे जैसे समय व्यतीत होता गया वैसे वैसे साधु परम्परा में भो बहुत कुछ मतभेद होता गया । इसी मतभेद के कारण उनके निर्वाण के ९८० वर्ष बाद अनेक गच्छ स्थापित हो गये । गच्छों की अनेकता के कारण उनकी परम्पराएँ भी विभिन्न होने से अनेक प्रकार की हो गई हैं । गच्छों का विविध जाल फैल जाने पर भी उनमें अनेक प्रकाण्ड दार्शनिक सिद्धान्तवेत्ता प्रभावशाली और विविध विषयों के ज्ञाता अनेक आचार्य हुए हैं । जिन्होंने महत्त्वपूर्ण कृतियों से जैन वाङ्मय की समृद्धि में संस्मरणीय योगदान दिया है । भगवान श्रीमहावीर द्वारा प्ररुपित तत्त्वज्ञान तथा आचार शास्त्र ऐसी ठोस भूमि पर स्थित था कि उसे लेकर इतने वर्षो बाद भी कोई खास उल्लेखनीय मतभेद नहीं हुआ, जैसा कि वैदिक दर्शन या ब्राह्मण परम्परा में दृष्टिगोचर होता है । या बौद्ध परम्परा में भी दिखाई देता है । परन्तु निष्प्राण बाह्म क्रियाकाण्डों को ही धर्म के अंग मानकर समय समय पर अनेक गच्छ उत्पन्न होते गये । क्रियाकाण्ड धर्म के अंग बन जाने से धीरे धीरे संघ में शिथिलता आने लगी। फलस्वरुप वह अनेक विकृतियों का आगार हो गया। कठोर संयम का पालन करनेवाले र
हो गये । यहाँ तक की यह चैत्यवास अपनि पराकाष्ठा तक जा पहुँचा । जो साधु समुदाय
गल. अरण्य, बन, उद्यान आदि शास्त्रों में वर्णित निरवद्य अठारह स्थानों में जहां कहीं प्रासुक स्थान मिल जाता, वहाँ सुखपूर्वक निवास करते थे, वह अब मठों की तरह उपाश्रय बनाकर रहने लगे।
___ इस पतन के पीछे यह कारण है-भगवान महावीर का जब निर्वाण हुआ, उस समय उनकी नाम राशि पर महाभस्मग्रह बैठा था, इस भस्मग्रह को देख कर भगवान के निर्वाण के पूर्व शक्रेन्द्रने भगवान से पूछा-" भगवान् ? आपके नाम नक्षत्र पर भस्मग्रह बैठा है, उसका फल क्या है ?
___ तब भगवान ने उत्तर में कहा-हे देवेन्द्र ! इस भस्म के कारण दो हजार वर्षतक सच्चे साधु साध्वियों की पूजा मंद होगी । ठीक दो हजार वर्ष के बाद यह ग्रह उतरेगा, तब फिर से जैन धर्म में नव चेतना जागृत होगी और योग्य पुरुष तथा साधु-सन्तों का अथोचित सत्कार होगा ।"
भगवान श्रीमहावीर की यह भविष्यवाणी अक्षरसः सत्य निकली । वीर निर्वाण के ४७० वर्ष बाद विक्रम संवत प्रारम्भ हुआ और विक्रम के १५३१ वें वर्ष में अर्थात् (४७०:१५३१=२००१) वीर सं. २००१ के वर्ष में वीर लोकाशाह ने धर्म के मूलतत्त्वों को पुनः प्रकाशित किया और इस प्रकार के गण पजक धर्म विस्तार पाने लगा । महान क्रान्तिकारी लोकाशाह के जन्म स्थान, समय और माता-पिता के नाम आदि के सम्बंध में भिन्न-भिन्न अभिपाय मिलते हैं किन्तु कुछ विद्वानों के आधारभूत निर्णय के अनुसार श्री लोकाशाह का जन्म अरहटवाडे में चौधरी गौत्र के ओसवाल गृहस्थ सेठ हेमा भाई की
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