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________________ थे । आचार्य स्थूलिभद्र दीर्घायु थे। आपके समय में मगध में राज्यक्रांति हुई थी। तथा नंद साम्राज्य का उच्छेद ओर मौर्य साम्राज्य की स्थापना हुई थी। मौर्य सम्राट चन्द्रगुम, बिन्दुसार, अशोक और कुणाल भी आपके समक्ष थे । कौटिल्य अर्थशास्त्र का निर्माता महामंत्री चाणक्य भी आपके दर्शन से लाभान्वित हुआ था । वीर सं. २१४ में होनेवाले आषाढभूति के शिष्य तीसरे अव्यक्तवादी निह्वव भी आप ही के समय में हुए थे । आपके लघुभ्राता श्रीयक ने भी चारित्र ग्रहण कर उत्तमति प्राप्त की। वीर सं. २१५ में वैभारगिरि पर्वत पर १५ दिन का अनशन करके आपने स्वर्गरोहन कियो । वीर सं. ११६ में आचार्य श्री स्थूलिभद्र का जन्म, १४६ में ३० वर्ष की अवस्था में दीक्षा, १६० के लगभग पाटलीपुत्र में प्रथम आगमवाचना, १६८ में लगभग चूलिकाओं की आगमरूप में प्रतिष्ठा १७० में आचार्यपद, और वीर सं. २१५ में स्वर्गवास । . ९-१० वे पट्टधर आर्य महागिरि और सुहस्ती __ आर्य महागिरि और सुहस्ती अपने युग के परम प्रभावक युग-पुरुष थे । आर्य स्थूलिभद्र के शिष्य रत्न और पट्टधर थे। बाल्यकाल में आर्य स्थूलिभद्र की बहन यक्षा माध्वी द्वारा आपको प्रतिबोध मिला था। दोनों की आयु में लगभग ४५ वर्ष जितना अन्तर पडता है। दोनों ही आचार्य सर्वश्रेष्ठ मेधावी, त्यागी एवं बहुश्रुत थे। अत्यंत निष्ठा के साथ ११ अंग और दस पूर्व तक का कण्ठस्थ अध्ययन दोनों ही आचार्यों ने किया । आर्य महागिरी उच्चकोटि के साधक थे । प्रायः जिनकल्प का आचार पालते थे। आपने आर्य सुहस्ती को मुनिगणों का नेतृत्व सौंप कर एकान्त वनवास स्विकार किया । आर्य सुहस्ती स्थविरकल्पी रहे और विशेषतः नगर एवं ग्राम वस्तीयों में ही उनका निवास रहा। अवन्ती नरेश महाराजा सम्प्रति आपके परम भक्त थे। आपके उपदेश से महाराजा संप्रति ने जैन धर्म की प्रभावना के अनेक कार्य किये । आर्य महागिरी और आर्य सुहस्ती की शिष्य परंपरा बहुत विशाल थी। आर्य महागिरि के शिष्य समूह से कोशाम्बी, चन्द्रनगरी, आदि अनेक शाखाएँ प्रचलित हुई । आर्य महागिरि के शिष्य कौशिक गोत्रीय रोहगुप्त ने त्रैराशिक निह्ववमत का प्रचलन किया । रोहगुप्त साक्षात शिष्य नहीं किन्तु परम्परागत शिष्य प्रातभासित होता है क्योंकि उनका काल वीर सं. ५४४ निर्दिष्ठ है। आर्य महागिरि का वीर सं. १४५ में जन्म, १७५ में दीक्षा २१५ में आचार्य पद और २४५ में १०० वर्ष की आयु पूर्णकर दशार्ण भद्र मालव देश में जिसे मन्दसौर कहते हैं जिसके नजदीक गजेन्द्रपुर में स्वर्गवास हुआ। आर्य सुहस्ती के भी आर्य रोहण, यशोभद्र, मेघ, कामधि, सुस्थित और सुप्रतिबद्ध, आदि अनेक शिष्य थे, जिनसे चंदिज्जिया, काकंदिया, विज्जाहरी, बंभलिविया, आदि अनेक गण और कुलों का प्रारंभ हुआ। आर्य रोहण के उद्देहगण और नागभूत कुल का एक शिला लेख कनिष्क सं. ७ का प्राप्त हुआ है। जो उक्त गण और कुलों की ऐतिहासिकता पर प्रकाश डालना है। आर्य सुहस्ती से गणवंश, वाचकवंश, और युग प्रधान-वंश-तीन श्रमण परंपराएँ प्रचलित हुई । गणधर-वंश गच्छाचार्य परम्परा है, वाचकवंश विद्यागुरुपरंपरा है और युगप्रधान विभिन्न गण एवं कुलों के प्रभावशाली आचार्यों की क्रमागत परम्परा है। आर्य सुहस्ती का वीर सं. १९१ में जन्म २१५ में दीक्षा २४५ में युग प्रधानआचार्य पद और २९१ में १०० वर्ष की आयु पूर्णकर उज्जयिनी में स्वर्गवास हुआ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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