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________________ १०९ के बाद उन्हें मुनिवेष में उपस्थित हए देख वह बहुत दुःखित हुई किन्तु इस बात से संतोष भी हआ कि वे चार महिने उसी की चित्रशाला में रहेंगे । साथ ही उसने सोचा मेरे यहां चातुर्मास करने का और क्या अभिप्राय हो सकता है ? इसका कारण उनके हृदय में मेरे प्रति रहा हुआ सूक्ष्म मोह भाव ही है । चित्रशाला में स्थूलिभद्र को रहने की आज्ञा मिल गई । कोश्या गणिका की चित्रशाला साक्षात् कामदेव की मधुशाला थी। सब ओर कण कण में मादकता एवं वासना का उद्दाम प्रवाह बहता था एक से एक बढकर कामोतेजक चित्रों की शृखला कोशा स्वर्गलोग से उतरी हुई मानों अप्सरा ! नील गगण. उमडती घुमडती काली घटाएँ, वर्षों की झमाझम शीतल बहार कोशा की संगीत कला की चिर साधना से मँजा निखरा गान और नृत्य ऐसा कि एक बार तो जडपत्थर भी द्रवित हो जाए परन्तु स्थूलिभद्र पद्मासन लगाये ध्यान मुद्रा में सदा लीन रहते । गणिका की नाना प्रकार की चेष्टाओं से वे किंचित भी विचलित नहीं हुए । इधर कोशा उन्हें विचलित करना चाहती थी उधर मुनिवर स्थूलिभद्र उसे प्रतिबोधित करना चाहते थे। जब जव वह उनके पास जाती वे उसे संसार की असारता ओर कामभोग के कटफल का उपदेश देते । मुनिवर स्थूलिभद्र के उपदेश से कोशा को अन्तर प्रकाश मिला । उनकी अद्भुत जितेन्द्रियता को देखकर उसका हृदय पवित्र भावनाओं से भर गया । अपने भोगासक्त जीवन के प्रति उसे बड़ी घृणा हुई । वह महान अनुताप करने लगी । उसने मुनि से विनय पूवक क्षमा मांगी तथा सम्यकत्व और बारहवत अंगीकार कर वह श्राविका हुई । उसने नियम किया राजा के हुक्म से आये हुए पुरुष के सिवाय मैं अन्य किसी पुरुष से शरीर सम्बन्ध नहीं करूंगी। इस प्रकार व्रत और प्रत्याख्यान कर कोशा गणिका उत्तम श्राविका जीवन व्यतीत करने लगी। चातुर्मास समाप्त होने पर मुनिवर स्थूलिभद्र ने वहां से बिहार कर दिया । अन्य मुनिगण भी चातुर्मास की समाप्ति के बाद गुरु देव के समीप पहुँच गये। गुरु वर ने प्रथम तीनों मुनिराजों का दुष्कर कारक तपस्वी के रूप में स्वागत किया परन्तु स्थूलिभद्र जब गुरु के समीप पहुँचे तो गुरुदेव उनके स्वागत में खडे हो गये, सात आठ कदम सन्मुख गये हर्ष युक्त गद्गद् वाचा में दुष्करदुष्कर कारक तपस्वी कह कर उनका भाव भीना स्वागत किया । यह देख कर दूसरे शिष्यों के मन में ईर्षा उत्पन्न हो गई । वे सोचने लगे-हमने इतना लम्बा तप किया और सिंह को गुफा में अथवा सांप की बांबी पर अथवा कुंए के कांठे पर चार महिने बिताए । स्थूलिभद्र तो वेश्या की चित्रशाला में आनन्द से रहे षङ्स भोजन किया । फिर भी गुरुने हमसे भी ज्यादा सत्कार किया । सिंह गुफावासी मुनि ने इर्षावश मुनिस्थूलिभद्र का अनुकरण करने का प्रयत्न किया किन्तु वह अपने कार्य में असफल रहा । अंत में वह मुनि आचार्य के पास पहुँचा। अवज्ञा के लिए क्षमा याचनो की। अपने दुष्कृत्य की निंदा करते हुए प्रायश्चित लेकर शुद्ध हुए। महामुनि स्थूलिभद्र एक ऊंचे साधक ही नहीं किंतु बहूत बडे प्रभावशाली ज्ञानो भी थे । पाटलीपुत्र की प्रथम आगमवाचना में आचारांगादि ११ अंगों का संकलन इनकी अध्यक्षता में ही हुआ था । स्थूलिभद्र अर्थ सहित प्रथम दस पूर्व के ज्ञाता थे। शेष चार पूर्व मूल में याद थे । आचार्य भद्रबाहु के पट्ट पर स्थूलिभद्र मुनि वीरसं. १७० में आसीन हुए और युगप्रधान बने । आचार्य स्थूलिभद्र की यक्षा आदि ७ बहनों द्वारा चूलिका सूत्रों के रूप में आगम साहित्य की वृद्धि हई थी। चार चूलिकाओं में से भावना और विमुक्ति, आचारांग सूत्र के एवं तिवाक्य और विविक्तचर्या दशवकालिक सूत्र के परिशिष्ट रूप में वीर सं. १६८ के आस पास जोड दी गई जो आज भी साधना जीवन हे प्रकाश किरणे विकीर्ग कर रही हैं। आर्य महागिारे और आर्य सुहस्ति आपके प्रधान शिष्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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