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________________ १०२ भगवान के शरीर में गोशालक के द्वारा फेंकी गई तेजो लेश्या के कारण कुछ समय तक दाहज्बर रहा किन्तु रेवती गाथा पत्नी के द्वारा बनाये गये बिजोरा पाक को औषधी सेवन से दाह ज्वर शान्त हो गया, और भगवान सिंह की तरह भव्यों को प्रतिबोध देने लगे। भगवान ने इस बार क्रमशः वाणिज्यग्राम, राजगृह, वाणिज्यग्राम, बैखाली पुनः वैशाली, राजगृह, नालंदा, वैशाली मिथिला, राजगृह नालंदा, मिथिला राजगृह में अपने ४१ वें चातुर्मास को पूर्णकर आप पावापूरी पधारे। इस वर्ष का वर्षाकाल पावापुरी में व्यतीत करने का निर्णय के कारण आप हस्तिपाल राजा की रज्जुक सभा में पधारे और वहीं चातुर्मास की स्थिरता की । यह आप का अन्तिम चातुर्मास था । इस वर्ष के चातुर्मास में आपने अ भव्यों को उद्बोधित किया। राजा पुण्यपाल आदि ने आप से श्रमण्य ग्रहण किया । एक एक करके वर्षाकाल के तीन महिने बीत गये और चौथा महिना लगभग आधा चितने आया कार्तिक अमावस्या का प्रातः काल हो चुका था। उस समय राजा हस्तिपाल की रज्जुक सभा भवन में भगवान श्री महावीर के अन्तिम समवशरण की रचना हुई । उसी दिन भगवान ने सोचा- आज मैं मुक्त होने वाला हूँ और गौतम का मुझ पर अपार स्नेह है। यह स्नेह बन्धन ही इसे केवली होने से रोक रहा है इसलिए इसके स्नेह बन्धन को नष्ट करने का उपाय करना चाहिए यह सोचकर भगवान ने गौतम स्वामी को बुलाया और कहा - गौतम पास के गांव में देव शर्मा ब्राह्मण रहता है वह तुम्हारे उपदेश से प्रतिबोध पायगा । इसलिए तुम उसे उपदेश देने जाओ। भगवान की आज्ञा प्राप्त कर गौतम, देवशर्मा ब्राह्मण को उपदेश देने चले गये । प्रभु के समवशरण में अपापा पुरी का राजा मल्ली एवं अठारह गणराज भी आये । इन्द्रादि देव हॅस्तिपाल, काशी कौशल के नौं लिच्छवी तथा नव भी समवशरण में उपस्थित हुए । भगवान ने अपनी देशना प्रारंभ कर दी। छठ का तप किये हुए भगवान ने ५५ अध्ययन पुण्ष फल विपाक के और ५६ अध्ययन पाप फल विपाक सम्बन्धी कहे । उसके बाद ३६ अध्ययन प्रश्नव्याकरण - विना किसी के पूछे कहे । उसके बाद अन्तिम प्रधान नामक अध्ययन कहने लगे । उस दिन भगवान को केवलज्ञान हुए २९ वर्ष ६ महिना, १५ दिन व्यतीत हुए थे । उस समय पर्य आसन से बैठे प्रभु ने निर्वाण प्राप्त किया । जिस रात्रि में भगवान का निर्वाण हुआ उस रात्रि में बहुत से देवी देवता स्वर्ग से आये । अतः उनके प्रकाश से सर्वत्र प्रकाश हो गया । उस समय नवमल्ली नौ लिच्छवी काशी कोशल के १८ गण राजाओं ने पौषध व्रत कर रखे थे । भाव ज्योति के अभाव में देवों के रत्नमय विमानों से प्रकाश हो रहा था उसेद्रव्य ज्योति तेजोमय दिख रही थी । उसकी स्मृति में तब से आज तक दीपोत्सव पर्व चला आरहा है । शोक संतप्त देवेन्द्र एवं नरेन्द्रों ने भगवान के शरिर का दाह संस्कार किया। भगवान को अस्थि को देवगण ले गये । भगवान के निर्वाण के समाचार जब इन्द्रभूति को मिले तो वे दूर होने पर वे भगवान के वियोग में हृदय द्रावक विलाप करने लगे गया। उन्होंने घातीकर्म नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया । मूच्छित हो कर गिर पड़े। मूर्च्छा अन्ततः उनका स्नेहावरण नष्ट हो एक परम्परा के अनुसार वे बारह वर्ष तक संघ के नेता बने रहे । अन्तिम समय में अपने उत्तराधिका सुधर्मास्वामी को संघ का नेता बना कर निर्वाण को प्राप्त हुए । दूसरी परम्परा के अनुसार केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद आपने अपने श्रमणसंघ का नेता सुधमी स्वामी को बनाया भगवान महावीर की श्रमणपरम्परा -- श्रीगोतमगणधर भगवान महावीर के ग्यारह गणधरों में इन्द्रभूति श्रीगौतम प्रमुख गणधर थे। आपका जन्म मगध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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