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________________ १०१ ने देखते ही उन्हें रोक कर बोला है देवानु प्रिय आनन्दा ? तेरे धमाचार्य और धर्म गुरु श्रमण ज्ञात पुत्र ने उदार अवस्था प्राप्त की है। देव मनुष्यादि में उनकी कीर्ति तथा प्रशंसा हो रही है । पर यदि वे मेरे सम्बन्ध में कुछ भी कहेंगे तो अपने तप तेज से उन्हें उन लोभी वणिक की तरह जलाकर भस्म कर दूंगा । और हितैषी, वणिक की तरह के वल तुझे वचा दूंगा । तू अपने धर्माचार्य के पास जा और मेरी कही हुई बात उन्हें सुना दें ! गोशालक का क्रोध पूर्ण भाषण सुनकर आनन्द स्थवीर घबरा गया । वह जल्दी जल्दी महावीर के पास गया और गोशालक की बाते कह कर बोला-भगवन् गोशालक अपने तपस्तेज से किसी को जलाकर भस्म करने में समर्थ है ! ने कहा-आनन्द ! अपने तप तेज से मंखलीपुत्र गोशालक किसो को भी जलाने का सामर्थ्य रखता है किन्तु अनन्त शक्ति शाली अर्हन्त को जलाकर भस्म करने में वह समर्थ नहीं है । कारण जितना तपोबल गोशालक में है उससे भी अनन्त गुणा तपोबल निग्रन्थ अनगारों में है तो फिर अहंत के तपोबल के लिये कहना हो क्या ? किन्तु अनगार स्थविर एवं अर्हत् क्षमाशील होने से वे अपनी तपोलब्धि का उपयोग नहीं करते । आनन्द ! गौतमादि स्थविरों को इस बात की सूचना कर देना कि गोशालक इधर आ रहा है । इस समय वह द्वेष और म्लेच्छा भाव से भरा हुआ है । इसलिये वह कुछ भी कहे, कुछ भी करे पर तुम्हें उसका प्रतिवाद नहीं करना चाहिये यहाँ तक की कोई भी श्रमण उसके साथ धार्मिक चर्चा तक न करे ! स्थविर आनन्द ने भगवान का सन्देश गौतमादि प्रमुख मुनियों को सुना दिया । इधर ये बाते चल ही रही थी कि उधर गोशालक आजीवक संघ के साथ भगवान के समीप पहुंच गया और बोला--- _हे आयुष्मान काश्यप । तुमने ठीक कहा है कि मंखलिपुत्र गोशालक मेरा शिष्य है । किन्तु तुम्हारा शिष्य मखलिपुत्र कभी का मरकर देवलोक पहुंच गया है । मैं तुम्हारा शिष्य मखलि पुत्र गोशालक नहीं हं किन्तु गोशालक शरीर प्रविष्ट उदायी कुडियायन नामक धर्म प्रवर्तक हूं । यह मेरा सातवाँ शरीरान्तर प्रवेश है । मैं गोशालक नहीं किन्तु गोशालक से भिन्न आत्मा हूँ। भगवान महावीर ने कहा गोशालक तूं अपने आप को छिपाने का प्रयत्न न कर । यह आत्म गोपन तेरे लिये उचित नहीं । तू वही मंखलि पुत्र गोशालक ही है जो मेरा शिष्य हो कर रहा था । भगवान के इस कथन से गोशालक अत्यन्त बुद्ध हुआ । और भगवान को तुच्छ शब्द से सम्बो धित करता हुआ बोला काश्यप अब तेरा विनाशकाल समीप आगया है । अब तूं शीघ्र ही भ्रष्ट होने की तैयारी में है। ___ गोशालक के ये अपमान जनक बचन सर्वांनु भूति अनगार और सुनक्षत्र अनगार से सहा नहीं गया उन्होंने गोशालक को समझाने का प्रयत्न किया तो वह और भी क्रुध हुआ । उसने दोनों अनगारों के उपर तेजो लेश्या छोड दी। तेजोलेश्या कि प्रचण्ड ज्वाला से दोनों अनगारों का शरीर जलकर भस्म हो गया देवलोक गामी बने । दो मुनियों के भस्मसात् होने के बाद जब भगवान ने उसे पुनः समझाने का प्रयत्न किया तो दुम के क्रोध की सीमा न रही । सात आठ कदम पीछे हट कर उसने भगवान पर तेजो लेश्या छोड दी तेजो लेश्या भगवान को चक्कर काटती हुई उपर आकाश में उछली और वापस गोशालक के शरीर में प्रविष्ट हुई । पुनः प्रविष्ट हुई तेजोलेश्या के कारण गोशालक का शरीर जलने लगा । सात दिन तक दाह के कारण उसका शरीर जलता रहा । अन्त में उसे अपने दुष्कृत्य का बडा पश्चाताप के कारण वह मरकर अच्यतु देवलोक में गया । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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