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________________ गोशालक प्रकरण उन दिनों मंखलिपुत्र गोशालक भो वहीं था । भगवान श्री महावीर से अलग होकर वह प्रायः श्रावस्ती के आस पास ही घूमता था । तेजो लेश्या की प्राप्ति और निमित्त शास्त्रों का अभ्यास गोशालक ने श्रा. वस्ती में ही किया था । श्रावस्ती में अयंपुल नामक गाथापति और हालाहला कुम्मारिण गोशालक कि परम भक्त थी । प्रायः गोशालाक हलाहला कुम्भारिण की भाण्डशाला में ही ठहरता था ।। गोशालक भगवान महावीर के छद्मस्थ काल में उनके साथ छ वर्षतक रहा था । भगवान महावीर से तेजो लेश्या प्राप्ति का उपाय पाकर वह उनसे अलग हो गया । हालाहला कुम्भारिण को भाण्डशाला में उसने तपश्चर्या कर तेजोलब्धि प्राप्त करली थी । कालान्तर में उसके पास ज्ञान, कलंद, कर्णिक अग्निवेश्यायन और गोमाय पत्र अर्जन नामक छ दिशाचर (भगवान श्री पार्श्वनाथ की परम्परा के पथ भ्रष्ट शिष्य) आये । उन दिशाचरों ने आठ प्रकार के निमित्त, नवम गीत मार्ग, तथा दशम नृत्य मार्ग का ज्ञान प्राप्त कर रखा था। उन्होंने गोशालक का शिष्यत्व अंगिकार किया । इन दिशा चरी से गोशालक ने निमित्त शास्त्र का अभ्यास किया जिससे वह सभी को लाभ-अलाभ, सुख दुःख जीवन मरण आदि के विषय में सत्य सत्य बताता था । अपने इस अष्टांग निमित्त ज्ञान के कारण उसने अपने को श्रावस्ती में जिन न होते हुए भी जिन, केवली न होते हुए भी केवली सर्वज्ञ न होते हुए भी सर्वज्ञ घोषित करना प्रारंभ कर दिया । वह कहा करता था-मैं जिन. केवली और सर्वज्ञ हूँ। उसको इस घोषणा को श्रावस्ती में सर्वत्र चर्चा थी। मगवान महावीर के प्रमुख शिष्य श्री इन्द्र भूति अनगार ने भिक्षाथ घूमते समय यह जन प्रवाद सुना आज कल श्रावस्ती में दो तीर्थकर विचर रहें हैं-एक श्रमण भगवान महावीर और दूसरे मंखलिपुत्र गोशालक । वे भगवान के पास आये और जनप्रवाद के सम्बन्ध में पूछा-भगवन ! आजकल श्रावस्ती में दो तीर्थंकर होने की चर्चा हो रही है, यह कैसे ? क्या गोशालक सचमुच तीर्थकर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है ? । भगवान ने कहा-गौतम ! गोशालक के विषय में जो नगरी में बात हो रही है वह मिथ्या हैं । गोशालक जिन, केवली और सर्वज्ञ नहीं है। वह अपने विषय में जो घोषणा कर रहा है वह केवल मिथ्या है । वह जिन केवली, सर्वज्ञ आदि शब्दों का दुरुपयोग कर रहा है । गौतम ! यह शरवण ग्राम के बहल ब्राह्मण को गोशाला में जन्म लेने से गोशालक और मंखलि नामक गांव के पुत्र होने से मंखलि पत्र कहलाता है । यह आज से चौविस वर्ष पहले मेरा शिष्य होकर मेरे साथ रहता था । छ वर्ष तक मेरे साथ रहने के बाद यह मुझ से अलग हो गया । तदनन्तर इसने मेरे बताये गये उपाय से तेजोलब्धि और निमित्त शास्त्र के बल से यह अपने आप को सर्वज्ञ कहता फिरता है । वस्तुतः इसमें सर्वज्ञ होने की किंचित् भी योग्यता नहीं है । भगवान महावीर ने यह सब बाते गौतम को सभा के बीच कही । सुनने वाले अपने अपने स्थानों की ओर चल दिये । भगवान महावीर ने गोशालक का जो विस्तृत परिचय दिया वह सारे नगर में फैल गया । सर्वत्र एक ही चर्चा होने लगो-"गोशोशालक जिन नहीं हैं परन्तु जिन प्रलापो है । श्रमण भगवान महावीर ऐसा कहते हैं । मंखलिपुत्र गोशालक ने भी अनेकों मनुष्शों से यह बात सुनी । वह कत्यन्त क्रोधित हुआ । क्रोध से जलता हुआ वह आतापना भूमि से हलाहल कुम्हारिण के भण्डशाला में आया और अपने आजीविक संघ के साथ अत्यन्त आमर्ष के साथ बैठा । और एतद् विषयक विचार करने लगा। उस समय मगवान श्री महावीर के शिष्य आनन्द नाम के अनगार जो कि निरन्तर छठ छट तप किया करते थे, आहार के लिये घूमते हुए हालाहला कुम्भकारायण के आगे होकर जा रहे थे । गोशालक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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