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________________ ९५ परिषद् ५-कृष्ण का अपरकंका गमन (६) चन्द्र सूर्य अवतरण (७) हरिवंश कुलोत्पत्ति (८) चमरोत्पात (९) अष्टशत सिद्धा (१०) असंयत पूजा । प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव स्वामी के समय में एक यानी एक समय में उत्कृष्ट अवगाहना वाले १०८ व्यक्तियों का सिद्ध होना । दसर्वतीर्थकर श्री शीतलनाथ स्वामी के समय में एक अर्थात् हरिवंशोंत्पत्ति. उन्नीसवें तीर्थंकर श्री मल्लीनाथ स्वामी के समय एक यानी स्त्री तीर्थकर । बाईसवें तीर्थंकर श्री नेमिः नाथ भगवान के समय में एक अर्थात कृष्णवासदेवका अपरकंका गमन । चोवीसवें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी के समय में पांच अथात् १. उपसर्ग, २. गर्भहरण ३. चमरोत्पात ४. अभव्या परिषद् ५. चन्द्रसूर्योवतरण नौवें तीर्थकर भगवान सविधिनाथ के समय तीर्थ के उच्छेद से होने वाली असंयती की एक अच्छेरा हुआ। इस प्रकार असंयतों की पूजा भगवान सुविधिनाथ के समय प्रारंभ हुई थी. इसलिए यह अच्छेरा उन्हीं के समय में माना जाता है । वास्तव में नवें तीर्थंकर से लेकर सोलहवें भगवान शांति नाथ तक बीच के सात अंतरों में तोर्थ का विच्छेद और असंयती की पूजा हुई थी । भगवान ऋषभदेव के समय मरीचि कपिल आदि असंयती की पूजा तीर्थ के रहते हुई थी इसीलिए उसे अच्छोरा में नहीं किया गया । उपरोक्त दश बातें इस अवसर्पिणी में अनन्त काल में हुई थी। अतः ये दस ही इस हुण्डा अवसर्पिणी में अच्छेरे माने जाते हैं ।। उस समय मध्यमा पावापुरी में सोमिल नामक ब्राह्मण बडा भारी यज्ञ करा रहा था । इस यज्ञ में भाग लेने के लिए दूर दूर से विद्वान ब्राह्मण आयें । उनमें ग्यारह विद्वान-१ इन्द्रभूति, अग्निभूति वायुभूति, व्यक्तभूति सुधर्माजी, मंडिक्रपुत्र, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचलभ्राता, मेतार्य एवं प्रभास ये विशेष प्रतिष्ठित थे । इनके साथ क्रमशः ५००, ५००, ५००, ५००, ५००; ३५०, ३५०, ३००, ३००, ३००, एवं ३००, छात्र थे । ये सभी कुलीन ब्राह्मण सोमिल ब्राह्मण के आमंत्रण से : विशाल छात्र परिवार के साथ मध्यमा आये इन ग्यारह विद्वानों को एक एक विषय में संदेह था परन्तु वे कभी किसी को पूछते नहीं थे क्योंकि उनकी विद्वत्ता की प्रसिद्धि उन्हें ऐसा करने से रोकती थी। बोधीप्राप्त भगवान ने देखा कि मध्यमा नगरी का यह प्रसंग अपूर्व लाभ का कारण होगा। यज्ञ में आये हुए विद्वान ब्राह्मण प्रतिबोध पायेंगे । और धर्मतीर्थ के आधार स्तंभ बनेंगे । यह सोच भगवान ने वहां से उग्र विहार कर बारह योजन चलकर मध्यमा नगरी के महासेन उद्यान में उन्होंने वास किया । देवों ने समवशरण की रचना की बत्तीस धनुष उँचे चैत्य वृक्ष के नीचे बैठकर भगवान ने देशना आरंभ कर दी। भगवान की देशना सुनने के लिए हजारों स्त्री पुरुष एवं देवता गण आने लगे। भगवान महावीर के समवशरण में इतने बड़े जन समूह को एवं देवों को जाते हुए देख इन्द्रभूति आदि ग्यारह ब्राह्मण भी क्रमशः अपने अपने छात्र समूह के साथ समवशरण में पहुँचे । इन्होंने भगवान से शास्त्रार्थ किया । अपनी अपनी शंकाओं का समाधान पाकर ये सभी अपने अपने छात्र समूह के साथ दीक्षित हो गये । इस प्रकार मध्यमा के समवशरण में एक ही दिन में ४४०० ब्राह्मणों ने निग्रन्थ प्रवचन को स्वीकार कर देवाधिदेव महावीर के चरणों में नत मस्तक हो श्रामण्य धर्म को स्वीकार किया । इन्द्रभूति आदि प्रमुख ग्यारह विद्वानों ने त्रिपदी पूर्वक द्वादशांगी की रचना की। अतः उन्हें गणधर पद से सुशोभित किये गये । इसके अतिरिक्त अनेक स्त्री पुरुषों ने साधु धर्म और श्रावक धर्म स्वीकार किया । इस प्रकार भगवान महावीर ने वैशाखशुक्ला दसमी के दिन चतुर्विध संघ की स्थापना की । इसके बाद भगवान महावीर ने विशाल शिष्य परिवार के साथ राजगृह की ओर विहार किया । क्रमशः विहार करते हुए भगवान राजगृह के गुणशील उद्यान में पधारे । यहाँ : महाराज श्रेणिक ने आप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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