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________________ ९४ संध्या के समय एक ग्वाला (जिसके कानों में भगवान ने अपने वासुदेव के पूर्व भव में सीसा तपाकर डाला था वही जीव ) भगवान के पास अपने बैलों को छोड कर गांव में चला गया और जब वह वापस लौटा तो उसे बैल नहीं मिले। उसने भगवान से पूछा है देवार्य! मेरे बैल कहाँ है ? भगवान मौन रहे। इस पर ग्वाले ने क्रुद्ध होकर भगवान के दोनों कानों में काण्ड के कीले ठोक दिये । छम्माणि गांव से भगवान मध्यमा पधारे । और आहार के लिये फिरते हुए सिद्धार्थ वणिक के घर गये । सिद्धार्थ अपने मित्र स्वरक से बाते कर रहा था। भगवान को देखकर उठा और आदर पूर्वक वन्दन किया । उस समय भगवान को देखकर खरक बोला भगवान का शरीर सर्वलक्षण सम्पन्न होते हुए भी सशल्य है। सिद्धार्थ ने कहा मित्र भगवान के शरीर में कहा शल्य हैं ? जरा देखो तो सही देखकर खरक ने कहा यह देखो भगवान के कान में किसी ने काष्ठ की कील ठोक दी है । सिद्धार्थ ने कहा वैद्यराज शलाकाये निकाल डालो । महातपस्वी को आरोग्य पहुँचाने से हमें महापुण्य प्राप्त होगा । वैद्य और वणिक शाका निकालने के लिये तैयार हुए पर भगवान ने स्वीकृति नहीं दी और आप वहाँ से चल दिये। भगवान के स्थान का पता लगा कर सिद्धार्थ और खरक वैय औषध तथा आदमियों को साथ लेकर उद्यान में गये और भगवान को तेल द्रोणी पात्र विशेष में बिठाकर तेल की मालिश करवाई । फिर अनेक मनुष्यों से पकडवाकर कानों में से काकील खीच निकाली शलाका निकालते समव भगवान के मुख से एक भीषण चीख निकल पडी । भगवान महावीर का यह अन्तीम भीषण परिषह था । परिषहों का प्रारंभ भी ग्वाले से हुआ और अन्त भी ग्वाले से ही हुआ । वहाँ से विहार कर प्रभु जृंभग नामक गाँव के पास आये और वहां ऋजु पालिका नदी के उत्तर तट पर श्यामाक नामक कृषक के खेत में एक जीर्ण चैत्य के पास शालवृक्ष के नीचे छठ तप करके रहे और उत्कट आसन से आतापना लेने लगे । वहाँ विजय मुहूर्त शुक्ल ध्यान में लीन भगवान क्षपक श्रेणी में आरूढ हुए और उनके चार घनघाति कर्मो का नाश हो गया । वि. सं. ५०१ (ई. सं. ५०८) पूर्व वैशाख सुदि दसमी के दिन हस्तोत्तरा नक्षत्र में चतुर्थ प्रहर में भगवान को केवल ज्ञान और केवल दर्शन उत्पन्न हो गया। अब भगवान सर्वश सर्वेदशी हुए । सम्पूर्ण लोकालोकन्तर्गत भूत भविष्यत् सूक्ष्म व्यवहित मूतामूर्त समस्त पदार्थों को आप हस्तामलकवत देखने लगे । भगवान ने अपने छद्मस्थ काल में निम्न तपश्वर्या की १- पाण्मासिक एक २-पांच दिन कम षण्मासिक एक ३ – चातुर्मासिक नौ ४- त्रिमासिक दो ५ सा द्विमासिक दो ६ - द्विमासिक छ ७ सार्थमासिक दो ८ मासिक बारह ९ - पाक्षिक बहत्तर १० सोलह उपवास एक ११ - अष्टमभक्त बारह ९२ - षष्ठ भक्तं २२९ उक्त तपश्चर्या में भोजन दिन ३४९ होते हैं । साढे बारह वर्ष के दीर्घ काल में केवल ३४९ दिन ही आहार किया और शेष दिन निर्जल ' तप में बीताये । केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद भगवान एक मुहूर्त तक वहीं ठहरे। इन्द्रादि देवो ने आकर भगवान का केवल ज्ञान उत्सव मनाया। देवों ने समवशरण की रचना की। समवशरण में बैठकर भगवान ने देशना दी । इस प्रथम समवशरण में केवल देवता ही उपस्थित थे अतः विरति रूप संयम का लाभ किसी भी प्राणी को नहीं हुआ । यह आश्चर्य जनक घटना जैना गमो में 'अच्छेरा' के नाम से प्रसिद्ध है । दश आश्चर्य — जो बात अभूतपूर्व (पहले कभी नहीं हुई) हो और लोक में आश्चर्य की दृष्टि से देखी जाती हो ऐसी बात को अच्छेरा (आर्य ) कहते हैं। इस में दस बातें आश्चर्य जनक हुई है । वे इस प्रकार है १ - उपसर्ग २ - गर्भहरण ३ - स्त्री तीर्थंकर ४- अभव्या जो विस्मय एवं अवसर्पिणी काल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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